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________________ -१३. १२१] तेरसमो उद्देसो जो मंगलेहि सहिदो अदिसयगुणचउदसेहि संजुत्तो । देवकदेहि य दिवो सो एक्को जगवई होइ ॥" छत्तधयकलसैचामरदप्पणसुवदीकथालेभिंगारा । भट्टवरमंगलाणि य पुरदो गच्छंति देवस्स ॥ १२ वेरुलियरयणदंडा मुत्तादामेहिं मंडिया पवरा । देवेहि परिग्गहिदो सिदादवत्ता विरायति ॥ ११३ मरगयदंडत्तंगा मणिकंचणमंडिया मणभिरामा। पवणवसे५ णचंता विजयपडाया मुणेयम्वा ॥ ११४ वेरुलियवज्जमरगयकक्फेयणपउमरायपरिणामा । पप्पुलकमलवयणा कलसा सोहंति रयणमया ॥ १५ कणयमयारुदंडा संखिंदुतुसारहारसंकासा | सुरदेविकरयलच्छी सोहंति य चामरा बहवा ॥ १६ माइश्चमंडलाणिभा जाणामणिरयणदंडकयोहा। देवकुमारकरस्था दप्पणपती विरायति ॥ ११७ जाणाविहवत्येहि य कपसोहा तह य मंडवग्गेसु । देवेहि परिग्गदिदो सुवदीका ते विरायति ॥ १९८ पुष्फक्खएहि भरिदा कुंकुमकप्पूरचंदणादीहिं। रयणमया वरथाला सोहंति विलासिणिकरत्था ॥ ११९ वाजिदणीलमरगयपवालवरकणयरयदपरिणामा । भन्छरसाण सिरस्था भिंगारा ते विरायति ॥१२० अमरेहि परिग्गहिदा पुरदो अटेव मंगला जस्स । गच्छंति जाण होदि हैं सो जगसामी ण संदेहो ॥ २॥ ॥ ११० ॥ जो मंगलोंसे सहित होकर इन देवकृत चौदह (१४) अतिशय रूप गुणों से संयुक्त है वह एक ही देव जगत्का स्वामी होता है ॥१११॥ छत्र, वजा, कलश, चामर, दर्पण, सुप्रतीक (सुप्रतिष्ठ), थाल [बीजना] और भृगार,ये आठ उत्तम मंगलद्रव्य जिनेन्द्र देवके आगे चलते हैं ॥ ११२॥ वैडूर्यरत्नमय दण्डसे युक्त, मुक्तामालाओंसे मण्डित और देवोंसे परिगृहीत श्रेष्ठ धवल छत्र विराजमान होते हैं ॥ ११३ ॥ मरकतमय उन्नत दण्डसे संयुक्त, मणि एवं सुवर्णसे मण्डित, मनको अमिराम और पवनसे प्रेरित होकर नृत्य करनेवाली ऐसी विजयपताका जानना चाहिये ॥ ११ ॥ वैद्य, वज्र, मरकत, कर्केतन और पद्मराग इनके परिणाम रूप और विकसित कमलसे संयुक्त मुखवाले ऐसे रत्नमय कलश सुशोभित होते हैं ॥ ११५ ॥ सुवर्णमय सुन्दर दण्डसे संयुक्त; शंख, चन्द्र, तुषार व हारके सदृश धवल और देवांगनाओंके हाथासे लक्षित ऐसे बहुतसे चामर शोभायमान होते हैं॥११६॥ सर्यमण्डलके समान देदीप्यमान तथा नाना मणियों एवं रत्नोंसे निर्मित दण्डसे सुशोभित ऐसी कुमार देवों के हाथोंमें स्थित दर्पणपंक्तियां विराजमान होती हैं ॥११७|| मण्डपके अग्र भागोंमें नाना प्रकारके वस्त्रोसे शोभायमान व देवोंसे परिगृहीत सुप्रतीक (सुप्रतिष्ठ) विराजमान होते हैं ॥११८॥ पुष्पों व अक्षतोंमे तथा कुंकुम,कपूर व चन्दन आदिसे परिपूर्ण ऐसे विलासिनियोंके हाथोंमें स्थित उत्तम रत्नमय थाल शोभायमान होते हैं ॥ ११९ ॥ अप्सराओंके सिरपर स्थित ऐसे वे वज्र, इन्द्रनील, मरकत, प्रवाल, उत्तम सुवर्ण और चांदीके परिणाम रूप शृंगार विराजमान होते हैं ॥ १२० ॥ जिसके आगे देवोंसे परिगृहीत आठों मंगलद्रव्य चलते हैं वह निःसन्देह जगका स्वामी है, ऐसा जानो ॥१२१॥ वैडूर्य उपबश देवेहि कदो दिवो. ३ पब धयलस. ३ उश सुवदीकचोल, क सुदीवथाल, पब सुवदीकरोलि. ४ क परिग्गहा, पब परिग्गहिया, ५क पवणवमा ६ उश सुरसंदरियंसपछा, क प सुरदेविकरयलया, ब मुरदेविकरयला. ७श तह य मंडलग्गे दप्पणपती.. उ श णाणामणिवत्येहि. ९उकपबश मंगलागेमु. १.कफक्सदहि, पब फक्वहि...पबदाण दे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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