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________________ [ बारसमो उद्देसो ] णमिणं णमिणा' णवकेवल दिग्वलद्धिसंपण्णं । जोइसपडलविभागं समासदो संपवक्खामि ॥ १ अद्वेष जोयणसदा असीदिमहिएहि उवरि गंतॄणं । चंदस्स वरविमार्ण फेणणिर्भर होइ नायब्वा ॥ २ वणवेदिएहि जुत्ता वरतोरणमंडिया मणभिरामा । जिणपडिमा कृष्णा बहुभवणविहूसिया दिग्वा ॥ ३ पोक्खरणिवाविपडरा णाणावर कप्प रुक्खसंछण्णा । सुरसुंदरिसंजुत्ता भणादिणिहणा समुद्दिट्ठा ॥ ४ विक्वं भायामेण य चंदाणं गाउदा हवे तिणि । तेरससयं च दंडा चउदालीसा समधिरेगा ॥ ५ सोलस चेव सहस्सा अभिजोगसुरा हवंति चंदस्स । दिवसे दिवसे य पुणो वहति' बिंबं विउग्वित्ता' ॥ ६ चरिसससुरा दिग्वामक देहरूवसंपण्णा । पुव्वेण दिसेण ठिया कुंददुणिभा महासीहा' ॥ ७ उच्छंगदंतमुसला पभिण्णकरडा मुद्दा गुळगुळेता । चत्तारिस इस्सगया" दक्खिणदो होंति णिद्दिट्ठा ॥ ८ संसिंदुकुंद धवला मणिकंचरणरयणमंडिया दिग्वा । चत्तारि सहस्साद्दं हवंति अवरेण वरवसभा ॥ ९ मणपवणगमणदच्छा वरचामरमंडिया मणभिरामा । उत्तरदिसेण होति" हु चत्तारिसद्दस्स वरतुरया ॥ १० दिव्य नौ केवल - लब्धियों से सम्पन्न श्री नमिनाथ जिनेन्द्रको नमस्कार करके संक्षेप से ज्योतिष पटलके विभागका कथन करते हैं ॥१॥ आठ सौ अस्सी योजन ऊपर जाकर फेन सदृश धवल उत्तम चन्द्रविमान है, ऐसा जानना चाहिये ॥ २ ॥ ये विमान बन - वेदियों से युक्त, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, मनको अभिराम, जिनप्रतिमाओंसे सहित, बहुत भवनोंसे विभूषित, दिव्य, प्रचुर पुष्करिणियों एवं वापियोंसे सहित अनेक उत्तम कल्पवृक्षोंसे व्याप्त, अनादि-निधन कहे गये हैं ॥ ३-४ ॥ चन्द्रों के ये विमान विष्कम्भ व तेरह सौ चवालीस धनुष से कुछ ( धनुष ) अधिक हैं || ५ || योग्य जातिके देव हैं जो प्रतिदिन विक्रिया करके उसके बिम्बको एवं निर्मल देह व रूपसे सम्पन्न तथा कुन्दपुष्प व चन्द्रके सदृश धवल महा सिंहके आकार चार हजार देव पूर्वदिशामें स्थित रहते हैं || ७ || ऊंचे उठे हुए दति रूपी मूसलोंसे सहित, मदको बहाने वाले गण्डस्थल से युक्त और मुखसे महा गर्जना करनेवाले ऐसे हाथीके आकार चार हजार देव दक्षिण में निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ ८ ॥ शंख, चन्द्र एवं कुंदपुष्प के सदृश धवल तथा मणि, सुवर्ण व रत्नोंसे मण्डित दिव्य उत्तम वृषभके आकार चार हजार देव पश्चिममें स्थित रहते हैं ॥ ९ ॥ मन अथवा पवनके सदृश गमनमें दक्ष, उत्तम चामरेंरोंसे मण्डित और मनको अभिराम ऐसे उत्तम अश्वके आकार चार हजार देव उत्तर दिशा में होते हैं ॥ १०॥ इसी प्रकार सूर्यबिम्बको सुरसुन्दरियोंसे संयुक्त और आयामसे तीन गव्यूति और चन्द्रके सोलह हजार आमिजाते हैं ॥ ६ ॥ इनमें दिव्य १ कप मिणाहं. २ क विधाणं. ३ प व फेणणितं. ४ श क तेरससददंडानं. ५ उ रा पुण्णो हवंति ६ प ब वहति विं विविचा. ७ क विया, प ब द्विय. ८ उश महाविभासीहा ९ क उगदंत घुसला, प व उकंगसाला १० ज श गुलिगुळिता. प ब गुलगुलंता, ११ उश गय. १२ शत्रतौ' उत्तरदिखेण होति' इत्यत आरम्याग्रिमगाथास्थ ' होति ' पदपर्यन्तः पाठः स्वलितोऽस्ति. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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