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________________ २२२] जंबूदीवपण्णत्ती [११. ३५७एक्कं पि साहुदाण दादूर्ण सविमवेण सोधीए' । पावदि पुण्णं जीवो अपत्तपुग्वं भवसदेसु ॥ ३५७ देवेस विदर्स पार्विति' मणतयं विसोधिच । केवलजिणठाणं पिय सम्मत्तगुणेण पार्विति॥१५८ सम्वट्ठविमाणादो उवरि गंतूण होदि णायम्वा । इसिपम्भारा पुढवी" माणुसखेत्तप्पमाणेण' ॥ १५९ सेदादवत्तसरिसा भटेव य जोयणा दु मज्झम्हि । मंते अंगुल मेत्ता रुंदा पुरवी दुरयदमया ॥३५. तत्य ए गिट्टियकम्मा सिद्धा' सुहसादपिंडसम्वस्सं । मन्वाबाधमणतं मक्खायसोर्ख अणुभवंति ॥" तसं दुणस्थि समाण ससुरासुरमाणुसम्मि कोयम्मि । जेण सम उवमाणं तिलतुसमेतं नि कीरज ॥२ चितमि पवरणगर उवमिज्ज चिलादयावर्णतं पिणय होज्ज तस्स उवमी तिहुयणेसीक्रेण मोक्स । भट्टविहकम्ममुक्का परमगदि उत्तम मणुप्पत्ता । सिद्धा साधियकज्जा कम्मविमोक्खे ठिदा" मोक्वं ॥ १५४ मुणिदपरमस्थसारं मुणिगणसुरसंघपूजियं परमं । वरपउमणंदिणमियं मुणिसुब्बदजिणवरं वंदे ॥ ३९५ ॥इस अंबूदीवपण्णत्तिसंगहे वाहिरउवसंहारदीव-सापर-णरयगदि-देवगदि-सिद्धखेत्त-वण्णणो णाम एपारसमो उहेसो समत्तो ॥१॥ स्वविभवानुसार शुद्धिपूर्वक एक साधुदानको ही अर्थात् मुनियोंको आहारादि देकर जीव जो पुण्य प्राप्त करता है वह पहिले सैकड़ों भवोंमें प्राप्त नहीं हुआ ॥ ३५७ ॥ जीव सम्यक्त्व गुणसे देवों में मी इन्द्र पदको प्राप्त करते है तथा अनन्त विशुद्धि एवं केवलजिन स्थान ( अरहन्त पद ) को भी पाते हैं ॥ ३५८ ॥ सर्वार्थ विमानसे ऊपर जाकर मानुषक्षेत्र प्रमाण (१५००००० योजन ) ईषप्रांगमार पृथिवी जानना चाहिये ॥३५९॥ रजतमय वह पृथिवी श्वेत छत्रके सदृश होकर मध्यमें आठ योजन व अन्तमें एक अंगुल प्रमाण विस्तीर्ण ( मोटी) है ॥३६०॥ उस ईषत्प्राग्भार पृथिवीपर (सिद्धक्षेत्रमें) अष्ट कर्मको नष्ट कर चुकनेवाले सिद्ध जीव सुख-साताके पिण्ड रूप सर्वस्वसे सहित, एवं बाधासे रहित अनन्त अक्षय सुखका अनुभव करते हैं ॥३६१॥ उस सुखके समान सुरलोक, अमरलोक व मनुष्यलोकमें कोई सुख नहीं है जिसके साथ उसकी तिल-तुष मात्र भी तुलना की जा सके ।।३६२ ।। में श्रेष्ठ नगरका चिन्तन करता हूं जहाँ अमादिसे अनन्त काल तक उस सुख की उपमा दी जा सके (1) किन्तु उस मोक्षसुखकी तीनों लोकोंके सुखसे तुलना नहीं हो सकती ॥३६॥ आठ प्रकारके कमोसे रहित, उत्तम परमगतिको प्राप्त तथा कृतकृत्य सिद्ध जीव कोंके छूटनेपर मोक्षमें स्थित हुए ॥ ३६४ ॥ उत्तम परमार्थके ज्ञाता, मुनिगण एवं सुरसमूइसे पूजित, और श्रेष्ठ पद्मनन्दिसे नमस्कृत मुनिसुव्रत जिनेन्द्रको नमस्कार करता हूं ॥ ३६५ ॥ ।। इस प्रकार जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसंग्रहमें बाहिर उपसंहार स्वरूप दीप-सागर-नरकगति-देवगति सिद्धक्षेत्रका वर्णन करनेवाला ग्यारहवां उद्देश समाप्त हुआ ॥११॥ क सविमावेण सोधीए, प सविमवेण सोधाए, श सविमविणिहिधीए. २ कप पावंति. ३ उश अस्रोधि. ४ कपबईसिपम्भारा पुढवी. ५ प ब घमाणेण. १ उश विद्धा. ७क सुहसावपिंडमरचलं, पब सामावपिंडमचन. ८ उपब.श तत्थ ९कपब तु...उश चित्तेमि. "पबणगद. १२ उश मि. १६ उश ग य तस्स होदि उवमा. १४ उश दिहुयण. १५ प सुक्खेण सोक्खस्स, साक्पेण सोक्सस्स, १६ विदा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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