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एक्कारसमो उसो
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सोहम्मीसाणसुखः रदपनि होतिः सक्त उच्चतं । छश्चैव दुः उरलेधी माहिंदसजवकुमारेसु ॥ ३४६" बम् बहुवरिया देव किर पंच होति रदणीभो । तह अद्धपंथमा खलु लचकाविया होति ॥ ३४७ सुक्कमा सुक्केसुः यः सदारकप्पे तहा सहस्वारे। चत्तारि य रदणीओ उच्छेद्दा होति ते देवा ॥ ३४८ आप्णवपाणद देवा मधुट्टा तह य होति' रदणीओ। । आरणमच्युदया पुन तिष्णेव' कमेण निदिट्ठा ॥ ३४९ आउट्टिदी वि-वाणं बावीसाः सागरोवमा भणिया । उरसासो पक्खेण वाससहरसेण आहारों ॥ ३५० हेट्टिममेवज्ज.णं' 'मडिझमबाणं चः उपरिमाणं च । श्रड्ढादिज्जा भणियों अनुवकमेण मुयथा ॥ ३२१ होदि दिवड्ढा रदणी अशुद्दिसाणं तु देवसंघाणं । रदणी किर उच्छेहो सम्वट्टमनुत्तराणं" तु' ॥ ३५९बे सप्त दस य चउदस सोलस भट्टरर्स वीस बावीसा । एक्काधिया य एसो उक्करसं जार्म ते सीख ॥ ३५३ वारं वारं च पुणो जाई. विमाणाणि रणवत्थारे । ताइं तुः महदाई सेडिमबाई विसेसे ॥३५४ वाधीहि. विमल जसे सीय लाहिं परमुप्पमेव सेोहाहिं । उज्जानेद्दि य बहुसो रम्मा ये रहसणं ॥ ३५५ तवविणय सीलकलिया विरदाविरदाय संजदों चैव । उप्पज्जेति मणुस्सा तिरिया वि सुरालये के वि" ॥ ३५६ सौधर्म व ईशान कल्पोंमें देवोंकी उंचाई सात रत्नि तथा सनत्कुमार व माहेन्द्र कल्पों में छह रमि प्रमाण है || ३४६ ॥ ब्रम्ह व ब्रम्होत्तर कल्पवासी देवोंकी उंचाई पांच रत्नि और लान्तव कापिष्ठवासी देवोंकी उंचाई साढ़े चार रत्नि प्रमाण है || ३४७|| शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार कल्पों में उन देवोंकी उंचाई चार रत्नि प्रमाण है ॥ ३४८ ॥ आनत प्रागतकल्पवासी देवोंकी उंचाई साढ़े तीन रत्नि तथा आरण अभ्युतकल्पवासी देवोंकी उंचाई तीन रत्नि प्रमाण ही निर्दिष्ट की गई है ॥ ३४९ ॥ उन आरण अच्युतवल्पवासी देवोंकी आयुस्थिति बाईस सागरोपम प्रमाण कही गई है । [ जिन देखें की जितने सागरोपम प्रमाण आयु होती है उतने ] पक्षों में वे उच्छ्वास लेते और उतने ही हजार वर्षोंमें आहार ग्रहण करते हैं ।। ३५० ॥ अधस्तन, मध्यम और उपरिम ग्रैवेयको अनुक्रमसे अदाई, [ दो और डेढ़ रत्नि प्रमाण शरीरको उंचाई ] कही गई है || ३५१ ॥ अनुदिशोंके देवसमूहों की उंचाई डेढ़ रत्नि तथा सर्वार्थसिद्धि एवं विजयादि अनुत्तरवासी देवों की उंचाई एक रत्न मात्र है ।। ६५२ ॥ [ सौधर्म ईशान आदिक युगलोंमें क्रमसे । दो, सात, दश, चौदह, सोलह, अठारह, बीस और बाईस [ सागरोपम ] तथा इससे आगे मैवेयकादिकोंमें तेतीस . सागरोपम तक एक एक सागर अधिक, इस प्रकार यह उत्कृष्ट [ आयु/माण जानना चाहियें ] ॥ ३५३ ॥ रत्नप्रस्तार में जो विमान ऊपर ऊपर हैं वे महान् हैं, श्रेणिमय विमान विशेष रूपसे महान् हैं (!) । ॥ ३५४ ॥ उक्त विमान निर्मल शीतल जलसे परिपूर्ण एवं पद्मों व उत्पल से शोभायमान ऐसी वापियोंसे तथा उद्यानोंसे प्रेमी जीवोंके लिए बहुत रमणीय है ॥ ३५५॥ तप, विनय व शीसे संयुक्त संयतासंयत और संयत मनुष्य तथा कितने ही तिथेच मी सुरालयमें उत्पन्न होते हैं ॥३५६॥
१ क अबूभुट्टा तान होंति: २ उ शःपुष्ठ तिमत्रे, कः पुणो तिष्णवे. ३ क प व गेवब्जेन. ४ उ मणिय, ब- शमशिक ५ उ प च सव्वट्टमणुतराणं, शसक्तत्तराणं. ३ क प ब अट्ठदस उश उद्योः ८ क जाव ९ उ क प ब जाव. १० उ तेर्हितो महलाइ श तेहिंतो महकारि. ११ क हैट्ठिमआई ११ श' विमलेजेड: पब-विमलजल १३ उश पडमपलेव सहिहिं, कः प ब परमप्पलोवसोहाहिं. १४ उ श य बहुपरमाई य. १५ प व संजुदा १६ प ब कोस.
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