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________________ ११० ] जंबूदीवपणती [ ६.१०४ रयणमया वि य बहुसो' कंचणमणिरयणभित्ति कैय सोहा । हरियंमरकतसिरी पासाया संठिया जाइ ॥ १०४ कंचणमणिरयणमया निम्मल महषज्जिया रयणचित्ता । बहुगंधपुष्कपठरा सुगंधगंधुदा' रम्मा ॥१०५ भवरे भणोवमगुणा वररयणविश्चित्तभूसिय परेसा। कप्पविमाणपुरवरप्यासावरा विसंबंति ॥ १०६ धवलहरी ससिणिम्मछेहि मण्णोष्णमभिलसंतेहि । वज्जाउद्दणगरी इव' दूराले। या सुई दहुं ॥ १०७ अद्धविमाण छंदा विमाणदा य स्वणपासादा । सम्मविमाणसिरीयं होऊण' म णिम्मिया णाई ॥ १०८ धवलहर पुंडरीपसु तेसु भवितन्ह" पेच्छणिज्जेसु । घरविखंभा खंभा सचित्तक्रम्मा विरायति ॥ १०९ मणिरयणमिति चित्ताई वाई पासादचित्तवळहीहि" । उप्पयद्द व सुरलोय विमाणवास उबहसंता ॥ ११० अहमद्दमहं णिज्जह मसगदा व संठिया केई । भाषासं संधिसा" रुद्धाइ य नाइ भयरेहि ॥ १११ बहुसो य गिरिसरिच्छा कप्पविमाणा व हंसकाया । सततला पासादा सोहम्मसिरि बिकंबंति ॥ ११२ अरहंताणं पडिमा पंचधणुस्सय समुच्छिया दिष्वा । पलियंकारणबद्धा णाणामणिरयणपरिणामा ॥ ११३ रत्नमय मित्तियों से सुशोभित; हरित् एवं मरकतकी श्रीसे संयुक्त, सुत्रर्ण, मणि एवं रत्नोंसे निर्मित, निर्मल अर्थात् मलसे रहित, रत्नोंसे विचित्र, बहुतसे सुगन्धित पुष्पों की प्रचुरता से युक्त, सुगन्ध गन्धको फैलानेवाले, रमणीय, दूसरे अनुपम गुणवाले, उत्तम रत्नों से विचित्र, सुशोभित प्रदेशवाले उपर्युक्त प्रासाद-गृह कल्पवासिया के श्रेष्ठ नगरको तिरस्कृत करते हैं ॥१०३-१०६॥ दूरसे दर्शनीय इन्द्रनगरी (अमरावती) को मानों सुखसे परस्पर देखनेकी अभिलाषा करनेवाले ऐसे चन्द्र के समान निर्मल धवल प्रासादों के द्वारा अर्ध विमानछन्द, विमानछद रत्नमय प्रासाद मानों स्वर्ग विमानों की शोभाको ले करके ही रचे गये हैं ।। १०७-१०८ ॥ अतिशय तृष्णा युक्त होकर देखने योग्य उन श्रेष्ठ धवल प्रासादों में गृह विस्तार प्रमाण चित्रकारी युक्त खम्मे विराजमान हैं ॥ १०९ ॥ मणि एवं रत्नमय मितियोंके वे चित्र भवनों के विचित्र छज्जोंके द्वारा विमानवासका उपहास करते हुए मानों स्वर्गलोककी ओर उड़ रहे हैं ॥ ११० ॥ मत्त गजराज के समान स्थित कितने ही प्रासाद अहमहमिका अर्थात् ' मैं मैं मैं ' इस प्रकारसे आकाशको लधिकर मानो दूसरोंके द्वारा रोक लिये गये हैं, ऐसा प्रतीत होता है ॥ १११ ॥ पर्वत के सदृश, कल्पविमान के सदृश अथवा इसके सदृश बहुतसे प्रासाद सात खण्डोंसे युक्त होते हुए सौधर्म स्वर्गको शोभाको धारण करते हैं ॥ ११२ ॥ उन श्रेष्ठ प्रासादे में पांच सौ धनुष ऊंची, दिव्य, पल्यंकासनसे युक्त, नाना मणियों एवं रत्नों के परिणाम रूप, लक्षण एवं व्यंजनोंसे १ प म स्यणमया बहुविह- सो. २ व मति ३ उश हरियं नरकशसिरी, प ब हरि उणर कसरि ४ उश पयरा, ५ उश गंधुधु ६ प व निर्मााणा पुरवर ७ प विलंविति, य विछांवेमि. ० उ श विव उप बश हे कण. १० व अवितण्डु. ११ व बलिहीहि. १२ उश अहमहति १३ प ब नज्जइय मत्तगयंदा १४ प ब लंता. १५ प ब अवेरहिं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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