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________________ तिलोयपण्णत्तिका गणित २१ इस प्रकार प्राप्त करणी गत (irrational ) राशि को ग्रंथकार ने मान लिया है। त्रिज्या ३ है, जिसका वर्ग, प्राप्त हुआ। ऊँचाई १ योजन है। इस प्रकार घनफल ३१ प्राप्त किया गया है। मिन्न ३१ को लिखने के लिये आवकल के भिन्नों को लिखने की रीति का उपयोग नहीं होता था, वरन् २५ का अर्थ ३१ लेते थे। इस. माप के गड्ढे को विशिष्ट मैदे के रोमों के अविभागी: खंडों से भरे तो उन खंडों की संख्या जितनी होगी वह व्यवहार पल्य के रोमों की संख्या है। अथवा ३१ घन प्रमाण योजनों में जितने उत्तम भोगभूमि के वालाग्र होते हैं वह संख्या है। यहां संख्या निदर्शन के लिये रैखिकीय निरूपण प्रशंसनीय है। भाकृति -१ (गा. १, १२३-२४) इन रोमों की संख्या=३३ (४) ४(२०००)3x(४)' ४(२४) ४(५००) ४(८)" प्राप्त होती है। यह गणना करने के लिये ग्रंथकार ने अपने समय में प्रचलित व्यवहार गणित का उपयोग किया है। इस गुणन क्रिया को तीन पंक्तियों में लिखा गया है जिनमें परस्पर गुणन करना है। गुणन का कोई प्रतीक नहीं दर्शाया गया है, केवल एक खड़ी लकीर का उपयोग प्रत्येक संख्या के पश्चात् किया है जो गुणन का प्रतीक हो भी सकती है और नहीं भी। एक पंकि यह है 801९६/५००1८1८1८1८1८1८1८1८। इत्यादि 80 इस प्रतीक का अर्थ यह प्रतीत होता है कि गुणन के पश्चात् प्रथम पंक्ति में तीन शून्य बदा दिये खावें। इसका गुणन किया जाय तो वह (१०००)४९६४५००४(८) के सम होगा। ऐसी ऐसी तीन पंक्तियां ली गई जिनका आपस में गुणन करने से एक संख्या प्राप्त की है बिसे मूल ग्रंथ में दहाई अथवा स्थानाऱ्या पद्धति ( Place value notation) का उपयोग करके शन्दों में और फिर अंकों में लिखा गया है। शब्दों में सबसे पहिले इकाई के स्थान और तब दहाई, सैकड़े आदि के स्थानों का उल्लेख किया गया है। व्यवहार पख्य से व्यवहार पल्योपम कालको निकालने के लिये व्यवहार पस्य राशि में १०० का गुणा करते हैं। बो राशि उत्पन्न होती है उतने वर्षों का एक व्यवहार पल्योपम काल माना गया है। इसके पश्चात् उदार पल्य =(व्यवहार पल्य-असंख्यात करोड़ वर्षों के समयों की राशि) differonos in area between the circle and the polygon would at last be exhausted." "A Short History of Mathematica" p. 310. भी बेल ने अपना मत व्यक्त किया है "The Greeks called it exhaustion ; Cavalieri in the seventeenth centary Oalled it the method of indivisibles and, as will appear in the proper place, got no closer to proof than the 'anoient Egyptions of at latest 1860 B. C. To us it is the theory of limits &, later, the integral, calculus." -Development of Mathematics p. 43. Edn. 1945. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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