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अदीवपणती जाभुपबामपन मिस्सयससमदसायकणिव । सुददेवदामिरमसुरप्पाई गमंसामि ॥ १.१ पाणुणसवलपर संजमउत्तुंगरम्मिसंघार्य । निम्मलतवपायाल समिदिमहामसंकणं ॥1॥ अमणियमदीप बरगुत्तिगंभीरसीलमज्जाद। जिब्याणरयणणिवई धामसमुई जर्मसामि ॥१.५ पणषादिकम्मदलणं केवलपरणाणदसणपईव' । मध्यवर्णपटमबंधु तिलोयणाई गुणसमिदं । १०५ विबुधवईमरमणिगणकरसकिळसुधोपचारुपयकमळ | वरपउमणंदिणमियं वीरजिणि णमंसामि ॥10॥
इय जीवपण्णत्तिसंगहे पमाणपरिग्छेदो णाम तेरसमो उद्देसी समत्तो ॥३॥ पुष्पोंसे परिपूर्ण, अमृतके समान स्वादवाले निश्रेयस रूप फलोंके समूहसे संयुक्त और श्रुतदेवतासे स्क्षणीय ऐसे श्रत रूप कल्प-तरुको मैं नमस्कार करता हूं ॥ १७१-१७२ ॥ सुन्दर गुणों रूप जलकी प्रचुरतासे संयुक्त, संयम रूप उन्नत ऊर्मिसमूहसे सहित, निर्मल तप रूप पातालोंसे परिपूर्ण, समितियों रूपी महामत्स्योंसे व्याप्त, यम-नियम रूप प्रचुर द्वीपों (जलजन्तुविशेषों) से संयुक्त, श्रेष्ठ गुप्तियों एवं गम्भीर शील रूप मर्यादासे सहित और निर्वाण रूप रत्नसमूहसे सम्पन्न ऐसे धर्म रूप समुद्रको में नमस्कार करता हूं ॥१७३-१७४॥ दृढ़ घातिया कोंको नष्ट करनेवाले, केवलज्ञान व केवलदर्शन रूप उत्तम दीपकसे युक्त, भव्य जनों रूप पोको विकसित करनेके लिये सूर्य समान, तीनों लोकोंके अधिपति, गुणोंसे समृद्ध, विबुधपतियों अर्थात् इन्द्रों के मुकुटोंमें स्थित मणिगोंके किरण रूप जलमें भले प्रकार धोये गये सुन्दर चरण-कमलोंसे संयुक्त और श्रेष्ठ पद्मनन्दिसे नमस्कृत ऐसे वीर जिनेन्द्रको नमस्कार करता हूं ॥१७५-१७६ ॥ . .. ॥इस प्रकार जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसंप्रहमें प्रमाणपरिच्छेद नामक तेरहवां
उद्देश समाप्त हुआ ॥ १३ ॥
उ निस्सेयसअमदमाफल, श मिस्सेयअमदमादफल. १ श देवदाभिरुक्. । पब चारणगुण. ४कसंयम. ५ उशपदवं उश भब्वायण. ७ पबतिलोयणाम ८ उश विउधवा.
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