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________________ जम्बाहीपपण्णत्तिकी प्रस्तावना n+(8 या १)+log, [२४. प्रमाणांगुल ] = log, र होता है, अथवा n+( या १)+४० प्रमाणांगुल=log, र होता है, अथवा n-५ % ( log: र-५-(8 या १)-४० प्रमाणांगुल) होता है। यदि हम 8 की जगह १ लें तो अधिक से अधिक n-५ = { log: र-log. (२). प्रमाणांगुल } होता है अथवा n-५ = { log३२" प्रमाांगुल } होता है । मकर सर्व ज्योतिष जिजों की संख्या, II से I में (n-५) का मान रखने पर = (६६९७५०००००००००००११७[६४ [ प्रमाणांगुल)-प्रमाणांगुल-५७३]] स्पष्ट है कि, ( प्रमाणांगल' तथा ५७३, प्रथम पद की तुलना में नगण्य है । इस प्रकार, प्रथम पद के हर में (२५६)२ प्रमाणांगुल आने के लिये, २ की बात ८० से काम नहीं चल सकता; क्योंकि उसके गुणक sx६४४६६९७५०००००००००००११७ में अड़च्छेदों की संख्या प्रायः ७७ या ७८ रहती है। इसलिये (२५६२ को उत्पन्न करने के लिये जहां १६ अर्दन्छेद अधिक होना चाहिये वहां ८०.७७ अथवा ३ अर्द्धच्छेद ही भागहार में २ की बात में रहते हैं। यदि रज्जु को बगभेणी में बदलने के लिये ४९ का भाग भी देना हो तथापि ५ अर्द्धच्छेद और जुड़ेंगे और इस प्रकार १६ के स्थान में केवल ८ ही २ की घात भागहार में रहेगी। इसलिये, १ की जगह संख्यात लेना उपयुक्त है। साथ ही, जिन पदों को घटाना है, उनसे भागहार में वृद्धि ही होगी। प्रथम पांच द्वीप-समद्रों के ज्योतिष बिम्बों का प्रमाण इस तुलना में नगण्य है। परिशिष्ट (१) Apj का प्रमाण श्रेदि के रूप में निम्न लिखित विधि से प्राप्त किया जा सकता है। चतुर्थ अधिकार की गाथा ३०९ के पश्चात् के विवरण के अनुसार तीन अवस्थित कुंड (शलाका, प्रतिशलाका तथा महाशलाका) और एक अनवस्थित (unstable) कुंड एक से माप के स्थापित किये जाते हैं। मान लो प्रत्येक में 'क' बीज समाते हैं। इस अनवस्थाकुंड से एक-एक बीज निकालकर क्रम से द्वीप-समद्रों को देते चाने पर क वें द्वीप अंथवा समुद्र में अन्तिम बीब गिरेगा। इस द्वीप अथवा समुद्र का व्यास गुणोत्तर श्रेदि के पद को निकालने की विधि के अनुसार २(क- १ लाख योजन होगा। यह क्रिया समाप्त होते ही रिक्त शलाकाकुंड में एक बीज डाल देते हैं। यहां सर्वप्रथम बीज शलाकाकुंड में गिराया जाता है। अब इस ध्यासवाले अनवस्थाकुर में 1..(क-२) । बीब समावेगे । इस परिमाण को क, द्वारा प्ररूपित करेंगे। इन क, बीमों को अब अगले द्वीप-समुद्रों में एक-एक छोड़ने पर अंतिम बीज (क+क,) दीप अथवा समुद्र में गिरेगा । इस द्वीप अथवा समुद्र का व्यास २ -१ लाख योजन होगा। इस क्रिया के समाप्त होते ही शलाकाकुंड में पुनः एक बीज डाल देते हैं। इतने व्यासवाले अनवस्थाकुंड में ई......(२क+२क-२) बीच समावेगे । इस परिमाण को क, द्वारा प्ररूपित करेंगे । क-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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