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________________ तिकोयपण्णत्तिका गणित पुष्करवर आदि ५ छोड़े हुए द्वीप-समुद्रों के चंद्र बिम्बों का प्रमाण मिला देने पर समस्त चंद्र बिम्ब संख्या का प्रमाण प्राप्त होगा। इस प्रकार (n - ५) द्वीप-समुद्रों के चंद्र बिम्बों का प्रमाण निकालने के लिये हमें, उपर्युक्त (n-५) उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त संख्याओं का योग प्राप्त करना पड़ेगा। वह योग निम्न लिखित श्रेढि रूप में दर्शाया जा सकता है :६४४२८८[३+२+२+२+......(n-५) पदों तक] +(६४)२३+२+२+२५+......(n-५) पदों तक] -६४[१+२+२ +२+.......(n-५) पदों तक] इसका प्रमाण, योगरूप में लाने के लिये हम गुणोत्तर श्रेदि के संकलन सूत्र का उपयोग करेंगे। बहां प्रथम पद हो, साधारण निष्पति (Common ratio) हो n गच्छ ( Number of terms ) हो वहां, संकलित धन = alP- १) होता है । इस तरह, कुल धन का प्रमाण यह है :-- T - १ ६.[२८८ १३(४१-१) } - १{१९२०१)} +६४ ३ ३४-८-१)}] अथवा, यहहै:६४[ .२-4)३२-(२)--4)-५७१] कुल चंद्र निम्नों के परिवार सहित समस्त ज्योतिष बिम्बों की संख्या यह होगी:(६६९७५०००००००००००११७)[[ Hin-4)}२-(२)(n-4)- ५७४]] +शेष पांच द्वीप समुद्रों के चंद्र बिम्बो का परिवार सहित संख्या प्रमाण] ............"I यहां ध्यान देने योग्य संख्या (२in-)) अथवा (२-५)(२-1) है। हमें मालूम है, कि रज्जु के अर्द्धच्छेदों का प्रमाण प्राप्त करने के लिये निम्न लिखित सूत्र का आभय लेना पड़ता है: ___n+(१ या s)+log: (ब)= log: (२) जहां, n द्वीप-समुद्रों की संख्या है। 8 संख्यात संख्या है, ज, जम्बूद्वीप के विष्कम्भ में स्थित संलग्न प्रदेशों की संख्या है बो असंख्यात (मध्यम असंख्यातासंख्यात से कम) प्रमाण है;र, एक राजु प्रमाण अथवा बगभेगी के सातवें भाग प्रमाण सरल रेखा में स्थित संलग्न प्रदेशों की संख्या है। यह भी शात है कि जम्बूद्वीप के विष्कम्भ में १०००.०४६x२x२x२x२x२०००x४ प्रमाणांगुल होते हैं। एक प्रमाणांगुल में ५०० उत्सेध अंगुल होते हैं तथा उस सूख्यंगुल में प्रदेशों की संख्या के अर्द्धच्छेद का प्रमाण ( log.)२ होता है वहां प, पस्योपम काल में स्थित समयों की संख्या है। यहां १ आवलि में जघन्य युक्त असंख्यात समय बतलाये गये हैं। इसलिये प्रमाणांगुल (५०. अं०) एक असंख्यात प्रमाण राशि है बो उत्कृष्ट संख्यात के ऊपर हाने से अत केवली के विषय की सोमा का उलंघन कर जाती है। जम्मूदीप के इस विष्कम्म को हम अधिक से अधिक २४. प्रमाणांगुल भी ले लें तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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