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________________ - ८. १०३ ] मो उद्देस [ १४३ सामाणिएहि सहिया देवा तह आदरक्खणिवदेहि । गणणावीदेहिं तहा भवसेससुरेहिं संजुत्ता ॥ ९४ सिंहासनमज्ज्ञगया सियचामरधुन्वमाणवरदेहा । सेद्रादवत्तणिवहा णाणाविहकेदुकयचिण्हा ॥ ९५ पजत महामउडा' णिम्मलमणिरयणे कुंडलाभरणा । हारविराइयवच्छा केयूर विहूसिया बाहू ॥ ९६ कडकडकंठा तुडियंगद्वस्थ भूलियर्सरीरा । वरपंचवष्णदेहा नीलुप्पल सुरहिणीसासः ॥ ९७ सम्मणसुद्धा जिणवर मुणिबंदणुज्जया धीरा । पुष्णेण समुप्पण्णा देवारण्णमि वरदेवा ॥ ९८ देवारणम्मि तथा जिर्णिदइंदाण होंति भवणाणि । कंचणरयणमयाणि य अणाइणिणाणि बहुयाणि ॥ ९९ ततो देवत्रणादो विजया वक्खारपन्त्रदादीया । ताव गया णायव्वा जाव दु भवरेविहीतं ॥ १०० ततो वरम्मि भागे होई' समुतुंगवेदिया दिव्वा | पंचधणुस्सय विडला चत्तारिसहस्स उच्छेद्दा || १०१ गाणामणिगणणिवा विबुद्धवरकमलगग्भसंकाला । वज्जमया णिडिट्ठा सहस्सधणुधरणिमवगाहा ॥ १०२ गंतून तदो भवरे वच्छा णामेण जणवदो होइ । सज्जणजणेहि भरिभो बहुगामसमाउलो रम्मो ॥ १०३ तथा आत्मरक्ष देवोंके समूहोंसे सहित, इनके अतिरिक्त शेष असंख्यात देवें से संयुक्त, सिंहासन के मध्यमें स्थित, धवल चामरोंसे वीज्यमान उत्तम देइसे संयुक्त, घत्रल आतपत्रसमूइसे युक्त, नाना प्रकारके केतुओं द्वारा किये गये चिह्नों ने संयुक्त, चमकते हुए महा मुकुटसे शोभायमान, निर्मल मणिमय रत्नकुण्डलोंसे अलंकृत, छारसे विराजमान वक्षस्थलवाले, केयूरोंसे विभूषित बाहुओं से सहित, कटिसूत्र, कटक, कंठा, त्रुटित (हायका एक आभूषणविशेष ), अंगद रूप आभरणों एवं वर्षो से भूषित शरीरवाले, उत्तम पांच वर्णोंसे युक्त देहके धारक, नीलोत्पलके समान सुगन्धित निश्वाससे युक्त, सम्यग्दर्शनसे शुद्ध, जिनेन्द्र व मुनियोंकी वन्दनामें उद्यत, तथा धीर ऐसे उत्तम देव पुण्यके प्रभाव से उस देवारण्यमें उत्पन्न होते हैं ॥ ९३-९८ ॥ देवारण्यमें सुवर्ण एवं रत्नमय अनादि-निधन बहुतसे जिनेन्द्रभवन हैं ।। ९९ ।। इस देववनसे आगे विजय और वक्षार पर्वत आदिक तब तक जानना चाहिये जब तक अपर समुद्रका अन्त नहीं आता है ॥ १०० ॥ उससे आगे के भागमें पांच सौ धनुष विस्तृत और चार हजार धनुष ऊंची उन्नत दिव्य वेदिका है ॥ १०१ ॥ नाना मणिगणों के समूदसे सहित, विकसित उत्तम कमलके गर्भ सदृश और वज्रमय उस वेदिका अवगाह पृथिवीमें एक हजार धनुष प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है ॥ १०२ ॥ उसके पश्चिममें जाकर वत्सा नामक देश है । यह देश सज्जन जनोंसे परिपूर्ण, बहुत प्रामोंसे युक्त, रम्य, धन-धान्य एवं रत्नों के समूह से सहित, संगीत व मृदंगके शब्द -निर्घोष १ उश सामाणियाहि. २ श मडला. ३ श निम्महरयण. ४ श बिसिया रम्मा ५ प ब डा. ६ प व तुडयंमंद वत्थत् सिय. ७ ख श एतो. ८ प च मागो दोह. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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