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________________ १४४ ] जंबूदीवपण्णत्ती [ ८. १०४. घणघण्णरयणणिव हो संगीय मुयंगस दणिग्घोसो' । णिच्चुच्छवेहि' जुमो सुरिंदलोगोवमो दिवो ॥ १०४ गंगासिंधूहि तथा वेदड्डणगेहि मेडिओ पत्ररो । पोक्खरणिवाधिपउरो णाणामसंकुल दिग्वे ॥ १०५ इन्भेदभागभिष्णो भज्जपुलिंदाण खंडसंजुत्तों । बहुणयखेडणिव हो पट्टण दोणामुइँसमग्गो ॥ १०६ विजयम्मि तम्मि मज्झे होदि सुसीमा त्ति णामदो णयरी । वरवेदिएहिं जुत्ता मणिसोरणमंडिया दिव्या पप्फुल्ल कमल कुवलयणीलुप्पकपुर हिकुसुमरिद्धीहि । परंतमच्छ च्छविसालखादीहि संजुत्ता ॥ १०८ कंचणपासादजुदा जिणभवणविहूसिया मणभिरामा । बहुभावणसंछण्णा णाणाविद्दद्दकयभूसा ॥ १०९ अवरेण तदो' गंतुं होदि तिकूडो त्ति पग्वदो पवसे । कंचणमभो विचित्तो" चउकूढ विहूसिभ तुंगो || १ घरवज्जरयणमूलो जिणभवणविहूसिभ मद्दासिहरो । वरवेदिपद्दि जुत्तो मणितोरणमंडिभो दिव्यो ॥ ११ गराणि बहुविहाणि य देवाण हवंति सेल सिद्दरम्मि । कंचणरयणमद्दि य पासादवरेहिं छष्णाणि ॥ १ वरवेदिह जुत्ताणि तानि वरतोरणेहि सहियाणि । नगराणि होति तस्स दु विकुडणामस्स अमरस्स ॥ १ से संयुक्त, नित्य होनेवाले उत्सवों से परिपूर्ण, सुरेन्द्रलोककी उपमाको धारण करनेवाला दिव्य, गंगा-सिन्धु नदियों तथा वैताढ्य पर्वतोंसे मण्डित, श्रेष्ठ, प्रचुर पुष्करिणी व वापियों‍ सहित, नाना वृक्षों से व्याप्त, दिव्य, छइ भेद रूप भागों में विभक्त, आर्य और म्लेच्छों खण्डोंसे संयुक्त, बहुत नगरों एवं खेड़ों के समूह से सहित तथा पट्टनों व द्रोणमुखासे परिपूर्ण है ॥ १०३-१०६ ॥ उस देश के मध्य सुसीमा नामक नगरी है। यह नगरी उत्तम वेदिकाओं से युक, मणिमय तोरणोंसे मण्डित, दिव्य; विकसित कमल, कुवलय व नीलोत्पल जैसे सुगन्धित कुसुम रूप ऋद्धियोंसे तथा तैरते हुए मत्स्य एवं कछवाओंसे सहित ऐसी विशाल खातिकाओं से संयुक्त, सुवर्णमय प्रासादोंसे युक्त, जिनभवनों से विभूषित, मनको अभिराम, बहुतसी दूकानोंसे व्याप्त, तथा नाना प्रकारके हाटोंसे की गई सजावटसे सम्पन्न है ॥ १०७--१०९ ॥ उससे पश्चिममें जाकर त्रिकूट नामक श्रेष्ठ पर्बत है । यह दिव्य पर्वत सुवर्णमय, विचित्र, चार कूटों विभूषित, उन्नत उत्तम वज्ररत्नमय मूलभागसे सहित, जिनभवन से विभूषित, महा शिखर से संयुक्त, उत्तम वेदियोंसे युक्त और मणिमय तोरणोंसे मण्डित है ॥ ११० १११ ॥ इस शैलके शिखरपर सुवर्ण एवं रत्नों से निर्मित और श्रेष्ठ प्रासादोंसे व्याप्त देवोंके बहुत प्रकारके नगर हैं ।। ११२ ॥ उत्तम वेदियों से युक्त और तोरणोंसे सहित वे नगर उस त्रिकूट नामक देवक हैं ॥ ११३ ॥ उससे पश्चिम दिशामें जाकर रम्य सुवत्सा नामक देश है । १ प मुद्दम घोसो, व सुइंदसदणिघोसो. २ प च णिवेदि ३ उश संता. ४ उ प ब शरयण. ५ प व दाणमुह. ६ उ श सुसीम ७ उश पयांतमच्छकच्छवे, प व पयरंतिम कवा. ८ उश संछण्णा णाणाविरुद्ध कायभूसा पत्र संकाणणाण विहट्ठदकयभूमो ९ श तो १० प य विधितो पासादम्बेरहिप, ब पासादप्परेहिं, श पासादम्बरह- १२ . मरोड, ११ ड बर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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