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________________ १२० जंबूदीवपण्णक्तिकी प्रस्तावना वेदिकासे १२ हजार यो. जाकर वायव्य दिशामें गौतम द्वीप है जो १२ हजार यो. ऊंचा और इतना ही विस्तीर्ण भी है। इसके अतिरिक्त यहां दिशाओं ४, विदिशाओंमें ४ और इनके अन्तरालमें ८, तथा हिमवान्, शिखरी और २ विजया इन पर्वतोंके दोनों ओर ८; इस प्रकार ये २४ अन्तरद्वीप हैं। इन द्वीपोंमें एक जंघावाले, पूंछवाले, सींगवाले एवं गूंगे इत्यादि विकृत आकृतिके धारक कुमानुप रहते हैं। इनमें एक जंघावाले कुमानुष गुफाओंमें रहकर मिट्टीका भोजन करते हैं तथा शेष कुमानुष पुष्प-फलभोजी होते हैं । इनके यहां उत्पन्न होने के कारणों को बतलाते हुए कहा गया है कि जो प्राणी मंदकषायी होते हैं, कायक्लेशसे धर्मफल को चाहनेवाले हैं, अज्ञानवश पंचामि तपको तपते हैं, सम्यग्दर्शनसे रहित होकर तपश्चरग करते हैं, अभिमानमें चूर होकर साधुओंका अपमान करते हैं, गुरुके पासमें आलोचना नहीं करते हैं, मुनिसंघको छोडकर एकाकी विहार करते हैं, सब जनों के साथ कलह करते हैं, जिनलिंगको धारण करके पापाचरण करते हैं, सिद्धान्तको छोड़कर ज्योतिष-मंत्रादिकों में विश्वास करते हैं, संयत वेष धन-धान्यादिको ग्रहण करते हुए कन्याविवाहादिका अनुमोदन भी करते हैं, मौनसे रहित होकर भोजन करते हैं, तथा सम्यक्त्वकी विराधना करते हैं, वे सब मरकर इन कुमानुोंमें उत्पन्न होते हैं। इनमें जो सम्यग्दृष्टि होते हैं वे मरकर यहांसे सौधर्मादिक स्वर्गों में उत्पन्न होते हैं तथा शेष भवनत्रिक देवोंमें उत्पन्न होते हैं। (११) इस उद्देशमें ३६५ गाथायें हैं। यहां द्वीप-सागर, अधोलोक तथा ऊर्चलोक वर्णित हैं। द्वीप-सागरोंमें धातकीखण्ड द्वीपका वर्णन करते हये बतलाया है कि ४ लाख योजन प्रमाण विस्तारवाला यह द्वीप लवण समुद्रको वेष्टित करके स्थित है। इसके दक्षिण और उत्तर भागमें २ इष्वाकार पर्वत हैं जो लवणसे कालोद समुद्र तक आयत हैं। विस्तार उनका एक एक हजार (१०००) यो. है। इनसे धातकीखण्डके दो विभाग हो गये हैं। प्रत्येक विभागमें जंबूद्वीपके समान भरतादिक ७ क्षेत्र और हिमवान् आदि ६ कुलपर्वत स्थित हैं। मध्यमें एक एक मेरु पर्वत है। इनमें हिमवान् पर्वतका समविस्तार २१०५३५. यो. है। इससे चौगुणा (८४२११. ) विस्तार महाहिमवान्का और उससे भी चौगुणा ( ३३६८४११. ) निषध पर्वतका है । आगे नील, रुक्मि और शिखरी पर्वतोंका विस्तार क्रमसे निषध, महाहिमवान् और हिमवान्के समान है। यह धातकीखण्डके एक ओरका पर्वतरुद्ध क्षेत्र हुआ। इतना ही पर्वतरुद्ध क्षेत्र उसके दूसरी ओर भी है। इसमें दो इष्वाकार पर्वतोंका क्षेत्र ( २००० यो.) मिला देनेपर सब पर्वतरुद्ध क्षेत्र इतना होता ह- २१०५ ५.४ ३(१ + ४ + १६ + १६ + ४ + १) ४२/+ १००० + १००० = १७८८४२१२ यो. होता है। धातकीखण्ड द्वीपकी आदिम (१५८११३९), मध्यम (२८४६०५०) और बाह्य (४११०९६१) परिधियों से उक्त पर्वतरुद्ध क्षेत्रको कम कर देनेपर शेष समस्त भरतादिक विजयों का क्षेत्र होता है । इसमें २१२ (भ. १ + हैम. ४ + हरि १६ + विदेह ६४ + र. १६ + हैर. ४ + ऐ. १)x २ = २१२ का भाग देकर लब्धको १, ४ व १६ आदिसे गुणित करनेपर क्रमसे भरत, हैमवत व हरिवर्प आदि क्षेत्रोंका विस्तार होता है । जैसे- ३(१५८ ११३९ - १७८८४२,२२) २१२ १४ १ = ६६१४ १२६ भरतका अभ्यन्तर विस्तार। ई ( २८४६०५० – १७८८४२ ) २१२ १४१ = १२५८१३२६. भरतका मध्यम विस्तार । ३(४११०९६१ - १७८८४२ ) २१२१४ १ = १८५४७३३ भरतका बाह्य विस्तार । इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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