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जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना
इनके विषय में हम पाठकों का ध्यान प्रथम महाधिकार की १६८ वी गाथा से लेकर, महाधिकार के अन्त तक गाथाओं के रैखिकीय निरूपण की ओर आकर्षित करते हैं। कहा नहीं जा सकता, कि ये रैखिकीय विधियां कहां तक पांच सांद्रों सम्बन्धी उलझे हुए प्रश्न को सुलझा सकेंगो। समाधान अनुसंधान पर आश्रित है।
अंक गणना इस अन्य से भी पूर्व के अन्यों, अनुयोगद्वार सूत्र' (१०० ई०पू०),तथा षट्खण्डागम में मनुष्य पर्याप्तों में मिथ्यादृष्टि मनुष्य द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा से कोडाकोड़ाकोड़ि से ऊपर और कोडाकोड़ाकोडाकोहि से नीचे, अथवा छठवें और सातवें वर्गों के बीच की संख्या बतलाई गई है। यहां शून्य का स्थाना पद्धति में प्रयोग किया गया है। भारतीय गणित में ऐसा निरूपण पूर्व के ग्रन्थों में अभी अन्यत्र कहीं नहीं दिखा है । बख्याली हस्तलिपि में 0 प्रतीक का प्रयोग शून्य ( Emptiness) अथवा अग्राह्यता (Omission) के लिये हुआ प्रतीत होता है। वीरसेन के पूर्व के सूत्रों में कई शैलियों से संख्या का कथन किया गया है जिसके लिये सूत्र ५२,७१, ७२ आदि देखने योग्य है । तिलोय-पण्णत्ति में प्रायः सभी स्थानों में स्थानाही पद्धति का उपयोग है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि इसकी संरचना के समय तक दसार्हा संकेतना पूरी तरह उपयोग में आ चुकी थी। गाथा ३०८ (चतुर्थ महाधिकार ) में अचलात्म नामक काल की संकेतना दी गई है जो (८४).x(१०). प्रमाण वर्षों के तुल्य होता है। आगे निर्देशित किया है कि यह संख्यात काल वर्षों की गणना, उत्कृष्ट संख्यातकी प्राप्ति तक ले बाना चाहिये। यह नहीं कहा बा सकता कि, आर्यभट्ट से भी पूर्व वर्गमूल या घनमूल निकालने की रीतियां भारत वर्ष में प्रचलित थीं, परन्तु तिलोय-पग्णचि तथा षटखंडागम में आये हुर उल्लेखों से प्रतीत होता है कि यहां ऐसे कथन भी थे, "जगश्रेणी को जगश्रेणी के बारहवें वगमूल से भाजित करने पर जो प्रमाण प्राप्त होता है वह वंशा पृथ्वी के नारकियों का प्रमाण होता है।
यद्यपि यूनानमें दशमलव पद्धति का प्रचलन ऐतिहासिक काल में सबसे पूर्व हुआ प्रतीत होता है, तथापि मिश्र में उनसे भी पूर्व दसारे पद्धति के आधार पर १, १०, १००, १००० आदि के लिये चिन्ह ये। इसी प्रकार बेबीलोन में भी दशमलव और षाष्ठिक पद्धतियों पर संख्याओं के निरूपण के लिये चिन्ह थे। आर्कमिडीज़ पद्धति उल्लेखनीय है। (१०) पर आधारित यह पद्धति काल के विषय में बड़ी संख्याओं की प्ररूपणा के लिये थी जिसके सम्बन्ध में कहा गया है, "This system was, however, a tour-de-force, and has nothing to do with the ordinary Greek numerical notation."
इन सबकी तुलना में उत्कृष्ट संख्यात, गणना द्वारा उत्पन्न करने की रीति, जो तिलोय-पण्णत्ति में वर्णित है, वह दूसरे अंथों के आधार पर पायथेगोरियन युग की प्रतीत होती है। एक और नवीन रीति का वर्णन अत्यंत रोचक है। वह है वर्गण-संवर्गण विधि | इस विधि को शलाका निष्ठापन विधि भी
१ अनु. सूत्र १४२. ३ द्रव्यप्रमाणानुगम ५ तिलोयपण्णत्ति २, १९६. & Heath, vol 1. p. 41.
२ द्रव्यप्रमाणानुगम (पु. ३) सूत्र ४५. ४ यह संकेतना वर्णन अनुयोगद्वारसूत्र में भी है, और
उसका प्रचलन उससे भी पूर्व काल में हुआ होगा ।
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