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________________ विषय परिचय तत्पश्चात् (१) नन्दी (२) नन्दिमित्र (३) अपराजित (४) गोवर्धन और (६) भद्रबाहु ये पांच श्रुतकेवली हुए । तत्पश्चात् (१) विशाखाचार्य (२) प्रोष्ठिल (३) क्षत्रिय (४) जय (५) नाग (६) सिद्धार्थ (७) धृतिषण (८) विजय (९) बुद्धिल (१०) गंगदेव और (११) धर्मसेन ये दस पूर्वोके ज्ञाता हुए। फिर (१) नक्षत्र (२) यशपाल (३) पाण्डु (४) ध्रुवषेण और (५) कंसाचार्य ये पांच ग्यारह अंगोंके धारी हुए । तत्पश्चात् (१) सुभद्र (२) यशोभद्र (३) यशोबाहु और (४) लोहाचार्य ये चार आचारांगके धारक हुए। इतनी मात्र श्रुतधारकोंकी परम्पराका निर्देश करके ग्रन्थकार आचार्यपरम्परासे प्राप्त द्वीप-सागरप्रज्ञप्तिके कहनेकी पुन: प्रतिज्ञा करते हैं। ___ आगे चलकर पच्चीस कोड़ाकोड़ि उद्धार पल्य प्रमाण समस्त द्वीप-सागरोंके मध्यमें स्थित जम्बूद्वीपके विस्तार, परिधि और क्षेत्रफलका निर्देश करके उसकी जगती ( वेदिका) का वर्णन करते हुए बतलाया है कि उसके विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नामक चार गोपुर द्वारोंपर क्रमश: इन्हीं नामोंके धारक प्रभावशाली चार देव स्थित हैं। यहां इनमेंसे प्रत्येकके बारह हजार योजन प्रमाण लंबे-चौड़े नगर हैं। जम्बूद्वीपमें ७ क्षेत्र, १ मन्दर पर्वत, ६ कुल पर्वत, २०० कांचन पर्वत, ४ यमक पर्वत. ४ नाभिगिरि. ३४ वृषभगिरि, ३४ विजयार्ध, १६ वक्षार पर्वत और ८ दिग्गज पर्वत स्थित हैं। इन सबके अलग अलग वेदियां व वनसमूह भी हैं । जम्बूद्वीपमें स्थित नदियों की संख्या १४५६०९० बतलायी है । पश्चात् नदीतट, पर्वत, उद्यानवन, दिव्य भवन, शाल्मलि वृक्ष और जम्बू वृक्ष आदिके ऊपर स्थित जिनप्रतिमाओंको नमस्कार करके अन्तमें ग्रन्धकर्ता श्री पद्मनन्दिने जिनेन्द्रसे बोधिकी याचना कर इस उद्देशको समाप्त किया है। २. दूसरे उद्देशमै २१० गाथायें हैं। यहां क्षेत्रविभागका वर्णन करते हुए बतलाया है कि जंबूद्वीपमें क्रमश: भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ये ७ क्षेत्र तथा क्रमश: इनका विभाग करनेवाले हिमवान् , महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मि और शिखरी ये छह कुलपर्वत स्थित हैं। जंबूदीपके गोलाकार होनेसे इसमें स्थित उन क्षेत्र-पर्वतोंमें क्षेत्रसे दूना पर्वत और उससे दूना विस्तृत आगेका क्षेत्र है । यह क्रम उसके मध्यमें स्थित विदेह क्षेत्र तक है। इस क्षेत्रसे आगेके पर्वतका विस्तार आधा है और उससे आधा विस्तार आगेके क्षेत्रका है । यह क्रम अन्तिम ऐरावत क्षेत्र त प्रकार जंबूद्वीपके १९० खण्ड ( भरत १+ हिमवान् २+ हैमवत ४+ महाहिमवान् ८+ हरिवर्ष १६+ निषध ३२+ विदेह ६४+नील ३२+ रम्यक १६+ रुक्मि ८+ हैरण्यवत ४+ शिखरी २+ और ऐरावत ११९०) हो गये हैं । इनमैसे अभीष्ट क्षेत्र या पर्वतका विस्तार जाननेके लिये जंबूद्वीपके विस्तार (१००००० योजन) में १९० का भाग देकर लब्धको विवक्षित क्षेत्र या पर्वतके खण्डोंसे गुणित करना चाहिए। गोल क्षेत्रके विभागभूत होनेसे इन क्षेत्रों और पर्वतोंका आकार धनुष जैसा हो गया है। यहां धनुषपृष्ठ, बाहु ( दीर्घ धनुषर्मेसे हस्व धनुषको कम करनेपर शेष क्षेत्रका अर्ध भाग ), जीवा, चूलिका ( दीर्घ जीवामेंसे हस्व जीवाको कम करनेपर शेष क्षेत्रका अर्ध भाग ) और बाणका प्रमाण लाने के लिये गणितसूत्र दिये गये हैं। विजयार्धका वर्णन करते हुए वहां उसकी दक्षिण अणिमें पचास और उत्तरश्रेणिमें साठ विद्याधर नगरोंका निर्देश करके गाथा ४० में उनकी सम्मिलित संख्या २०० बतलायी है जो विचारणीय है। कारण कि उपर्युक्त कथनके अनुसार ही वह संख्या ५०+६०=११० होनी चाहिये । यदि इसमें ऐरावत क्षेत्रस्थ विजया पर्वतके भी नगरों की संख्या सम्मिलित कर ली जाती है तो वे २२० नगर होने चाहिये। ___ यहां विजयाध पर्वतके वर्णनमें उसके ऊपर स्थित ९ कटोका नामनिर्देश करके उनके ऊपर स्थित जिनभवनों और देवभवनोंका तथा उद्यानवनोंका भी वर्णन किया है। उक्त पर्वतके दोनों ओर तिमिल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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