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जंबूदीवपण्णन्तिकी प्रस्तावना
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शास्त्रीकी कृपासे प्राप्त हुई है । यह प्रति पण्डितजी के द्वारा ऐ. पन्नालाल सरस्वती भवन, बम्बईकी प्रतिके आधारसे लिखी गई है । इसके ऊपर उन्होंने आमेर प्रति ( ज्येष्ठ शुक्ला ५ वि. संवत् १५१८ ) से मिलान करके कुछ महत्त्वपूर्ण पाठभेदोंका निर्देश किया है । मुद्रित ग्रन्थसे मिलान कर उनकी एक तालिका परिशिष्ट (पृ. ४६-५२ ) पर दे दी गयी है । पाठभेदों की अपेक्षा इस ( आमेर प्रति ) में और कारंजा प्रतिमै बहुत कुछ समानता पायी जाती है ।
उपर्युक्त पांचों प्रतियां यत्र तत्र त्रुटित एवं अशुद्धिपूर्ण रही हैं। इस कारण संशोधनके लिये किसी एक प्रतिको आदर्श मानकर चलना अथवा कोई विशेष नियम बनाना और तदनुसार शब्दशः या तत्त्वतः अनुसरण करना कठिन काम था। फिर भी मूलमें एक अर्थपूर्ण पाठभेद देनेका प्रयत्न किया गया है। जहां प्रतियों के पाटके अनुसार अनुवाद करना शक्य नहीं प्रतीत हुआ वहां प्रतियोंके पाठभेदका टिप्पणमें निर्देश कर सम्भावित शुद्ध पाठ देनेका प्रयत्न किया गया है । सन्दर्भ, अर्थ और उपलब्ध साधनसामग्री के आधारसे पाठका निर्णय यथाशक्ति पूर्ण सावधानीसे किया गया है ।
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आशा है कि इस सम्पादन के द्वारा फिर हाल इस विषयके अध्ययन और अनुसन्धानका काम
चल जायगा ।
प्रतियोंपर प्राय: इस ग्रंथका नाम 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति अंकित पाया जाता है । किन्तु उद्देशोंकी पुष्पिकाओं के उल्लेखानुसार ग्रंथका ठीक पूरा नाम ' जंबूदीवपण्णत्तिसंग्रह ' ( जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति-संग्रह ) है । ' संग्रह ' शब्द से यह सूचित होता है कि ग्रंथकारने किसी अन्य प्राचीन स्रोतसे अपने विषयका संकलन किया | गाथा १-६ और ८ तथा १३-१४२ से ध्वनित होता है कि वह स्रोत 'दीव सागर पण्णत्ति ' नामका ग्रंथ था । महावीर तीथैकरके उपदेशोंके आधारपर उनके गणधरों द्वारा निर्मित श्रुताङ्गों से बारहवे अंग दृष्टिवादके प्रथम भाग ' परिकर्म ' के भीतर गिनाई गई पांच ' प्रज्ञप्तियों में चौथे स्थानपर यह नाम पाया जाता है :- चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीप-सागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रशति । क्या उक्त उल्लेखका इस श्रुतरचनासे कोई संबंध है, यह अन्य प्रमाणके अभाव में कुछ कहा नहीं जा सकता ।
३ ग्रंथका विषय
इस ग्रंथमें सब मिलाकर २४२९ गाथायें व १३ उद्देश हैं। प्रत्येक उद्देशकी पुष्पिकामै उस उद्देशके विषयका सुस्पष्टतासे निर्देश पाया जाता है जो इस प्रकार है:
(१) उपोद्घात प्रस्ताव (२) भरतैरावतवर्णन (३) पर्वत- नदी - भोगभूमि वर्णन (४) महाविदेहाधिकार ( ५ ) मंदरगिरि - जिन भवनवर्णन (६) देवकुरु - उत्तरकुरु - विन्यास प्रस्ताव ( ७ ) कच्छाविजयवर्णन (८) पूर्वविदेहवर्णन (९) अपरविदेहवर्णन (१०) लवणसमुद्रवर्णन (११) बहिरुपसंहारद्वीप-सागर-नरकगतिदेवगति-सिद्धक्षेत्रवर्णन (१२) ज्योतिर्लोकवर्णन और (१३) प्रमाणपरिच्छेद ।
१. प्रथम उद्देश केवल ७४ गाथायें हैं। यहां सर्व प्रथम ६ गाथाओं में क्रमशः अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु परमेष्ठियों की वन्दना करके द्वीप-सागरप्रज्ञप्तिके रचनेकी प्रतिज्ञा की गयी है । तत्पश्चात् गा. ७ में सर्वज्ञका नामस्मरण और गा. ८ में वर्धमान जिनेन्द्रको नमस्कार करके श्रुत-गुरुपरिपाटी के अनुसार कथन करनेकी इच्छा प्रगट करते हुए तदनुसार ही आगे चलकर बतलाया है कि विपुलाचलपर स्थित भगवान् वर्धमान जिनेन्द्रने जो प्रमाण नयसंयुक्त अर्थ गौतम गणधर के लिये कहा था उसे ही उन गौतम सुधर्म (अपर नाम लोहार्य ) गणधरको तथा इन्होंने जंबू स्वामीको कहा। ये तीनों अनुबद्ध केवली थे ।
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