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जं. दी. प. की हस्तलिखित प्रतियां दूसरा ग्रंथ 'लोयविभाग' भी इसी प्राचीन परम्परा का था, किन्तु अब केवल उसका संस्कृत संक्षिप्त रूपांतर ' लोकविभाग' ही उपलभ्य है । नेमिचन्द्रकृत 'तिलोयसार' (सं. त्रिलोकसार, बम्बई, १९१७) और उसकी माधवचन्द्रकृत टीका इस ग्रंथसमूह की एक महत्वपूर्ण रचना है। प्रस्तुत 'जम्बूदीवपणत्तिसंगह' भी इसी शाखा का एक ग्रंथ है जिसे यहां एक प्रामाणिक पाठ संशोधन, हिन्दी अनुवाद व परिशिष्टों आदि सहित ग्रंथमाला के इस पुष्प के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। (देखिये जं. दी. प. सं. इंडियन हिस्टॉरीकल क्वार्टरली, कलकत्ता, १४, सन् १९३८ पृ. १८८ आदि )
२ जं. दी. प. सं. की हस्तलिखित प्रतियां इस ग्रंथ की बहुत थोड़ी प्राचीन प्रतियां पुस्तकालयों में पाई जाती हैं ( देखिये जिनरत्नकोश, पूना १९४४, पृ. १३१)। किन्तु फिर भी सम्पादकों को कुछ अन्य प्रतियां अनपेक्षित स्थानों से प्राप्त करने में सफलता मिली है । इन प्राचीन प्रतियोंका वर्णन निम्न प्रकार है:
१. ग्रन्थकी प्रेसकापी शोलापुर प्रतिके आधारसे करायी गयी थी। यह प्रति वैशाख शुक्ला १ संवत् १९७१ में लिखी गयी है। इसमें लिपिकारका नाम आदि नहीं है। पत्र संख्या उसकी ८२ है। यह प्रति ऐलक पन्नालाल दि. जैन पाठशालासे प्राप्त हुई थी। इसका उल्लेख टिप्पणमें पाठभेद देते समय श प्रतिके नामसे किया गया है।
२. दूसरी प्रति ' भाण्डारकर ओरिएण्टल इंस्टीटयूट पूनासे प्राप्त हुई थी। इसमें नौवां और दसवां ये २ उद्देश पूर्णतया त्रुटित हैं। इसके अतिरिक्त उसमें ११ वे उद्देशकी भी २९० गाथायें अनुपलब्ध है। इस प्रतिका निर्देश पाठभेद देनेमें प प्रतिके नामसे हुवा है।
३. तीसरी प्रति उस्मानाबादकी है । इसकी पत्र संख्या ९९ है। यह श्रावण कृष्णा द्वादशी मंगलवार सं. १९६० में लिखी गयी है । प्रति लेखकने अपने नाम आदिका निर्देश नहीं किया है । इसकी तथा शोलापुर प्रतिकी आधारभूत कोई एक ही प्रति रही है, ऐसा हम अनुमान करते हैं। इसका उल्लेख टिप्पणमें उ प्रतिके नामसे हुआ है।
४. चौथी प्रति श्री ऐ. पन्नालाल जैन सरस्वती भवन, बम्बई की है । इसकी पत्र संख्या १०२ है। यह आगरा जिलाके अन्तर्गत मोमदी ग्रामवासी किसी पीतांबरदास नामक वैश्यके द्वारा माघ सुदी १० रविवार ( संवत्का निर्देश नहीं है ) को लिखी गयी है । इसका उल्लेख टिप्पणमें ब प्रतिके नामसे किया गया है। इसकी तथा पूनाकी प्रतिकी आधारभूत भी कोई एक ही प्रति रही है, ऐसा इन दोनों प्रतियोंके पाठभेदोंकी समानताको देखते हुए निश्चित-सा प्रतीत होता है।
५. पांचवीं प्रति कारंजा बलात्कार भण्डारसे प्राप्त हुई है। इसकी पत्र संख्या ५९ है। यह प्रति चैत्र शुक्ला तृतीया संवत् १७८६ में लिखकर पूर्ण की गयी है । इसके लिखने में जितने भागमें स्याहीका उपयोग हुआ है उतना कागजका भाग अत्यन्त जीर्ण हो गया है, स्याहीके उपयोगसे रहित हांशियेका भाग उसका बहुत अच्छा है । यह प्रति हमें मुद्रणकार्यके प्रारम्भ हो चुकनेके पश्चात् प्राप्त हो सकी है । अत एव उसका उपयोग क प्रतिके नामसे केवल अन्तिम ५ उद्देशों (९-१३ ) में ही किया जा सका है।
यद्यपि उपर्युक्त सभी प्रतियां प्रायः अशुद्धिप्रचुर और यत्र तत्र स्खलित भी हैं, फिर भी उनमें कारंजा प्रति अपेक्षाकृत शुद्ध कही जा सकती है । लिपि उसकी सुवाच्य और आकर्षक भी है।
ग्रन्थके पूर्णतया मुद्रित हो जानेपर हमें एक प्रति श्री वीरसेवा-मंदिरके विद्वान् पं. परमानन्दजी
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