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________________ ११४ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना ओर खण्डप्रपात नामकी दो गुफायें हैं। इन्हीं गुफाओं के भीतरसे आकर गंगा और सिंधू नदियां दक्षिण भरतमें प्रविष्ट होती हैं । आगे जाकर उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालके भेदोंका उल्लेख करते हुए सब विदेहक्षेत्रों, पांत्र म्लेच्छावण्डों और सच विद्याधरनगरों में एक चतुर्थ काल वर्तमान बतलाया है। देवकुरु व उत्तरकुरुमैं प्रथम, हैमवत व हैरण्यवत क्षेत्रों में तृतीय, तथा हरिवर्ष व रम्यक क्षेत्रोंमें द्वितीय काल ही सदो रहता है। प्रसंग पाकर यहां इन कालोंमें होनेवाली आयु, उत्सेध और भोजन आदिका नियम भी बतलाया गयो है। कौन जीव किन परिणामोंसे भोगभूमियों में उत्पन्न होते हैं, इसका विवरण करते हुए उन भोगमूमियों में प्रथम चार गुणस्थान बतलाये हैं। . मानुषोत्तर पर्वतसे आगे स्वयम्भूरमण द्वीपके मध्यमें स्थित नगेन्द्र (स्वयंप्रभ ) पर्वत तक असंख्यात द्वीपोंमें युगल रूपमें उत्पन्न होनेवाले तिर्यंच जीव रहते हैं । काल यहांपर सदा तीसरा (सुषमदुषमा) ही रहता है । नगेन्द्र पर्वतसे आगे स्वयम्भूरमण द्वीप एवं स्वयम्भूरमण समुद्रमै दुःषमाकाल, देवोंमें मुषम-सुषमा, नारकियोंमें अतिदुःषमा तथा तिर्यंचों व मनुष्यों में छहों कालोंके रहने का उल्लेख किया गया है। अन्तमें उक्त छहों कालोंके स्वरूपका दिग्दर्शन कराते हुए इस उद्देशको समाप्त किया गया है। ३. तृतीय उद्देशमै २४६ गाथायें हैं। यहां हिमवान् और शिखरी, महाहिमवान् और रुक्मि, तथा निषध और नील कुलाचलोंके विस्तार, जीवा, धनुषपृष्ठ, पार्श्वपुजा और चूलिकाका प्रमाण बतला कर उनके ऊपर स्थित टोंके नामोंका निर्देश किया गया है । इन कटों के ऊपर जो भवन स्थित हैं उनका भी यहां वर्णन किया है । तत्पश्चात् हिमवान् और महाहिमवान् आदि छह कुलपर्वतोंके ऊपर जो पद्म और महापद्म आदि तालाव हैं उनमें स्थित कमलभवनोंपर निवास करनेवाली श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी इन छह देवियोंकी विभूतिका निरूपण है । पद्महदमें स्थित समस्त कमलभवन १४०११६ हैं। जम्बू और शाल्मलि वृक्षोंके ऊपर जो भवन स्थित हैं उनसे इनकी संख्याकी समानताका उल्लेख करके यहां इन वृक्षोंके अधिपति देवोंकी चार महिषियोंके चार भवन अधिक (१४० १२०) बतलाये गये हैं। यहां जो जिन भवन पाये जाते हैं उनका भी उल्लेख कर दिया है। ... . हिमवान् पर्वतके मध्यमें जो पद्मद्रह स्थित है उसके पूर्वाभिमुख तोरण द्वारसे गंगा महानदी निकली है। वहांसे निकलकर यह नदी हिमवान् पर्वतके ऊपर पूर्वकी ओर ५०० योजन जाकर फिर दक्षिणकी ओर मुड़ जाती है । इस प्रकार पर्वतके अन्त तक जाकर वहां जो वृषभाकार नाली स्थित है उसमें प्रविष्ट होती हुई वह पर्वतके नीचे स्थित कुण्डमें गिरती है । यह गोलकुण्ड ६२१ योजन विस्तृत और १० योजन गहरा है । इसके बीचोंचीच एक ८ योजन विस्तृत द्वीप और उसके भी मध्यमें एक पर्वत है। इसके ऊपर गंगादेवीका गंगाकूट नामक प्रासाद है। गंगा नदीकी धारा उन्नत भवन के शिखरपर स्थित जिनप्रतिमाके ऊपर पड़ती है। फिर यहांसे निकलकर वह गंगा नदी दक्षिणकी ओर जाकर विजयाकी गुफार्मेसे जाती हुई पूर्व समुद्रमें गिरती है। प्रसंगानुसार यहां गंगादिक नदियोंकी धारा, कुण्ड, कुण्डद्वीप, कुण्डस्थ पर्वत, तदुपरिस्थ भवन और तोरण आदिकोंके विस्तारादिकी भी प्ररूपणा की गई है। .. , अन्तमें हैमवत, हरिवर्ष, रम्यक और हैरण्यवत इन चार क्षेत्रोंके मध्यमें स्थित नाभिगिरि पर्वतोंका वर्णन करते हुए इन क्षेत्रोंमें प्रवर्तमान कालोंका पुन: निर्देश करके भोगभूमियोंकी व्यवस्थाका भी पुनरूलेख किया गया है। ४. चतुर्थ उद्देश, २९२ गाथायें हैं। यहां सुदर्शन मेरुका कथन करते हुए प्रारम्भकी ३-९ गाथाओं में जो लोकका स्वरूप बतलाया गया है वह स्पष्ट नहीं हुआ है। आगे उक्त लोकका विस्तार व ऊंचाई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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