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________________ विषय परिचय ११५ आदिका कथन है जो प्राय: सभी ग्रन्थों में समान रूपसे पाया जाता है । इस लोकके बहुमध्य भागमें स्थित असंख्यात द्वीप-समुद्रोंके मध्यमें जम्बूद्वीप है और उसके मध्यमै विदेह क्षेत्रके भीतर मन्दर पर्वत है। उसका विस्तार पातालतलमें १००९०१ यो., पृथिवीतलके ऊपर (भद्रशाल वनमें ) १०००० यो., और ऊपर शिखरपर (पाण्डुक वनमें ) १००० यो. है । यह मूल भागमें १००० यो. वज्रमय, मध्यमें ६१००० यो. मणिमय और ऊपर ३८००० यो, सुवर्णमय है। . । यहां मेरु पर्वतकी परिधि आदिका निर्देश करते हुए बतलाया है कि मेरुका भद्रशाल नामका प्रथम वन पूर्व-पश्चिममें २२००० यो. विस्तृत है। इसके मध्यमें १०० यो. आयत, ५० यो. विस्तृत और ७५ यो. ऊंचे ४ जिनभवन हैं। उनके द्वारों की उंचाइ यो., विस्तार ४ यो., और विस्तारके समान प्रवेश भी ४ ही यो. है । इनकी पीठिकायें १६ यो. दीर्घ और ८ यो. ऊंची हैं। उनमें स्थित जिनप्रतिमाओंकी उंचाई ५०० धनुष है। नन्दीश्वर द्वीपमें स्थित ५२ जिनभवनोंकी भी रचनाका यही क्रम है। नन्दन, सौमनस और पाण्डुक वनोंमें स्थित जिन भवनोंका विस्तारादि उक्त जिनभवनोंकी अपेक्षा उत्तरोत्तर आधा आधा है। मेरुके ऊपर पृथिवीतलसे ५०० यो. ऊपर जाकर नन्दन वन, ६२५०० यो. ऊपर सौमनस वन और ३६००० यो. ऊपर पाण्डुक वन स्थित है । इनमेसे पाण्डुक वनके मध्यमें ४० यो. ऊंची वैडूर्यमणिमय चूलिका है । इसका विस्तार मूलमें १२ यो., मध्यमें ८ यो. और शिखरपर ४ यो. है। चूलिकाके ऊपर एक बाल मात्रके अन्तरसे सौधर्म कल्पका प्रथम ऋतु विमान स्थित है । पाण्डुक वनके भीतर ईशान दिशा (पूर्वोत्तर कोण ) में पाण्डुकशिला, आमेय ( दक्षिण-पूर्व ) दिशामें पाण्डुककंचला, नैऋत्य ( दक्षिण-पश्चिम) कोणमें रक्तकंबला और वायव्य (उत्तर-पश्चिम) कोणमें रक्तशिला; ये ५०० यो. आयत, २५० यो. विस्तृत व ४ यो. ऊंची ४ शिलायें स्थित हैं । प्रत्येक शिलाके ऊपर ५०० धनुष आयत, २५० धनुष विस्तृत और ५०० धनुष ऊंचे ३-३ पूर्वाभिमुख सिंहासन स्थित हैं। इनमेंसे मध्यका जिनेंद्रोंका, दक्षिण पार्श्वभाग, स्थित सौधर्म इन्द्रका और वाम पार्श्वभागमें स्थित सिंहासन ईशानेन्द्रका है । ईशान दिशामें स्थित पाण्डुक शिलाके ऊपर भरतक्षेत्रोत्पन्न तीर्थंकरोंका, आमेय कोणमें स्थित पाण्डुककंबला शिलाके ऊपर अपरविदेहोत्पन्न तीर्थकरोंका, नैऋत्य कोणमें स्थित रक्तकंबला शिलाके ऊपर ऐरावतक्षेत्रोत्पन्न तीर्थंकरोंका और वायव्य कोणमें स्थित रक्त शिलाके ऊपर पूर्व विदेहोत्पन्न तीर्थंकरोंका जन्माभिषेक चर्निकायके देवों द्वारा किया जाता है। प्रसंग पाकर यहां सौधर्मेन्द्रकी सप्तविध सेना और ऐरावत हाथीका भी विस्तृत वर्णन किया गया है। . ५. पांचवे उद्देशमै १२५ गाथायें हैं । यहां मन्दर पर्वतस्थ जिनेन्द्रभवनोंका वर्णन करते हुए बतलाया है कि त्रिभुवनतिलक नामक जिनेन्द्रभवनकी गन्धकुटी ७५ यो. ऊंची, ५० यो. आयत और इतनी ही विस्तृत है । उसके द्वार १६ यो. ऊंचे, ८ यो. विस्तृत और विस्तारके बराबर ( ४ यो.) प्रवेशसे सहित हैं (गा. २-४ यहां असम्बद्धसी प्रतीत होती हैं )। मन्दर पर्वतके भद्रशाल नामक प्रथम वनमें चारों शाओम ४ जिनभवन है। इनका आयाम १०० यो., विस्तार इससे आधा (५० यो.), ऊंचाई ७५ यो. और अवगाह आधा योजन (२ कोस ) है । इन जिनभवनों में पूर्व, उत्तर और दक्षिणकी ओर ३ द्वार हैं। ये द्वार ८ यो. ऊंचे और इससे आधे विस्तृत हैं। इन जिनभवनों में पूर्व-पश्चिममें ८००० मणिमालाये और इनके अन्तरालोंमें २४००० सुवर्णमालायें लटकती हैं। द्वारों में कर्पूरादि सुगन्धित द्रव्योंसे संयुक्त २४००० धूपचर हैं। सुगन्धित मालाओंके अभिमुख ३२००० रत्नकलश हैं । बाह्य भागमें ४००० मणिमालायें, १२०००. सुवर्णमालायें, १२.००० धूपघट और १६००० कंचनकलश हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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