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________________ -९.१४४ णवमो उद्देसो [१६. बेरुलियवेदिणिवहा कंचणवरतोरणेहि रमणीया । वाजिदणीलमरगयविदुमपासादसंछण्णा ॥ १३५ भिंगारकलसदप्पणचामरघंटादिधयवडाजुत्ता । मुत्तादामसमग्गा जिणभवणविहसिया दिम्वा ॥ १३६ . पुग्वेण तदो गर्नु होइ महाणागपव्वदो तुंगो । णागवरकुंभैसरिसो चउसिहरविहसिमो दिम्वो ॥ १३. वणवेदिएहि जुत्तो वरतोरणमंडिओ मणभिरामो । गागसुररायसहिओ जिणभवणविहूसिमो विउलो ॥ १३० पुग्वेण वदो गर्नु होइ सुवग्गु त्ति जणवदो रम्मो । भमरकुमारसमाणा गरपवरा जस्थ दासंति ॥ १३९ चारुखेरेदि जुत्तो चारुमहापडणेहि रमणीयो । चारुवरकब्बडेजुदो चार पुणो दोणमुहसहिभो ॥ १४० चारसंवाहणिवहाँ चारुमडबेहि भूसिमो रम्मो। चारुणयरेहि जुत्तो चारुमहागामसंछण्णो ॥" रसाणदिसंजुत्तो वेदवणगेण मंडिओ पवरो । रत्तोदाएण जुदो रिसिभैगिरिविहूसिमो दिवो ॥ १४२ देसस्स तस्स णेया खगपुरी णामदो त्ति वरणयरी। मरगयपासादजुदा पवालवरतोरणारम्मा ॥ १४५ वरवज्जरजदमरगयकंचणपासादसंकुला रम्मा। घंटापडायणिवहा वरभवणविहूसिया दिवा ॥ १४४ .................... रहते हैं । उक्त दिव्य नगरी वैडूर्य मणिमय वेदिसमूहसे युक्त, सुवर्णमय उत्तग तोरणोंसे रमणीय; वन, इन्द्रनील, मरकत एवं विदुमसे निर्मित प्रासादोंसे व्याप्त; भुंगार, कलश, दर्पण, चामर, घंटा आदिक तथा ध्वजपटोंसे युक्त, मुक्तामालाओंसे परिपूर्ण और जिनभवनोंसे विभूषित है ॥१३४-१३६॥ उससे पूर्वकी ओर जाकर उन्नत महानाग नामक पर्वत है। यह विशाल पर्वत उत्तम हापीके कुम्भके सदृश, चार शिखरोंसे विभूषित, दिव्य, चन-वेदियोंसे युक्त, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, मनको अभिराम, नाग नामक देवराजसे सहित और जिनभवनसे विभूषित है ॥१३७-१३८ ।। उससे पूर्वमें जाकर मुवल्गू नामक रमणीय देश है, जहाँके श्रेष्ठ मनुष्य देवकुमारोंके सदृश दिखते हैं ॥१३९॥ यह दिव्य देश सुन्दर खेडोंसे युक्त, सुन्दर महा पटनोंसे रमणीय, सुन्दर उत्तम कर्बटोंसे युक्त, सुन्दर द्रोणमुखोंसे सहित, सुन्दर संबाहसमूहसे संयुक्त, सुन्दर मटंबोंसे भूषित, रम्य, सुन्दर नगरोंसे युक्त, सुन्दर महामामोंसे व्याप्त, रक्ता नदीसे युक्त, वैताट्य पर्वतसे मण्डित, श्रेष्ठ, रक्तोदासे युक्त और ऋषभ गिरिसे विभूषित है ॥१९०-१४२॥ उस देशकी राजधानी खड्गपुरी नामकी उत्तम नगरी जानना चाहिये। यह नगरी मरकत मणिमय प्रासादोंसे युक्त, प्रवालमय उत्तम तोरणोंसे रमणीय, उत्तम वज्र, रजत, मरकत एवं सुवर्णके प्रासादोसे व्याप्त, रमणीय, घंटा व पताकासमूहसे संयुक्त, दिव्य व उत्तम मवनोंसे विभूषित है ॥ १४३-१४४॥ उससे पूर्वकी ओर जाकर ऊर्मिमालिनी नामकी नदी उ विपासाद, श विददमुपासाद. २ ब धयवडाजुत्ता दाम. ३ उ श णावरकंम, ब गागावरकसम. ४ उ चातुनेगरिब चारसखेहि, श चतुखेगहि. ५ उ श फव्वड. ६ ब संवाहचाणिवहो. ७ उ शििसम, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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