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________________ १६६] जबूदीवपण्णत्ती [९. १२५ देसस्स तस्स या होदि य भवराजिद त्ति वरणयरी । कंचणपायारजुदा मणितोरणभासुरा दिवा ॥ १२५ वेरुलियवज्जमरगयपवालवरकणयभवणसंछण्णा । जिणइंदभवणणिवहा सुगंधगंधुद्धदा' रम्मा ॥ १२६ पुग्वेण तदो गंतुं होह गदी फेणमालिणीणामा' । मरगयकंधणविहमसोवाणगणेहि सोहंती ॥ १२७ कंचणवेदीहि जुदा ससिकंवमणीहि तोरणुत्तुंगा । वियरंतमच्छकच्छवसुगंधजलरिया दिग्बा ॥ १२८ भट्ठावीसाहि तहा सहस्सणदियाहि संजुदा रम्मा । दक्षिणमुहेण गंतुं पवहइ सीदोदमझेण ॥ १२९ पुग्वेण तदो गंतुं वग्गू णामेण जणवदो होइ । बहुगामसमाइण्णो णाणाविहधष्णसंपण्णो ॥ १. दिश्वसंवाणिवहो दिवमर्डबेहि भूसिमो रम्मो । दिवणयरेहि पुण्णो दिग्वायरमंडिओ पवरो ॥३॥ दिव्वखेडेहि जुत्तो दिव्वमहापट्टणेहि रमणीभो । दिवबहुकब्बडजुदो दिव्यो वरदोणमुईसहिलो ॥ ११२ वेदइदरिसमपम्वदरत्तारत्तोदएहि रमणीभो । पोक्खरणिवाविपउरो वणसंडविहसिमो दिवो ॥ ३॥ देसस्स तस्स गेया धक्कपुरी णामदो त्ति वरणपरी । वरचक्कवट्टिसहिया णरपवरा सम्वकालम्मि ॥ १३४ ॥ १२२-१२४ ॥ उस देशकी राजधानी अपराजिता नामकी उत्तम नगरी जानना चाहिये । यह नगरी सुवर्णमय प्राकारसे युक्त, मणिमय तोरणोंसे भासुर, दिव्य; वैडूर्य, वज्र, मरकत, प्रपाल और उत्तम सुवर्णके मवनोंसे घिरी हुई, जिनेन्द्रभवनोंके समूहसे सहित, रम्य तथा सुगन्ध गन्धसे युक्त है ॥ १२५-१२६ ॥ उससे पूर्वकी ओर जाकर फेनमालिनी नामकी रमणीय नदी है। यह नदी मरकत, सुवर्ण एवं विद्रुममय सोपानगणोंसे शोभित; सुवर्णमय वेदियोंसे युक्त, चन्द्रकान्त मणिमय उन्नत तोरणोंसे संयुक्त, विचरते हुए मत्स्यों व कछवाओंसे सहित, सुगन्धित जलसे परिपूर्ण, दिव्य तथा अट्ठाईस हजार नदियों से संयुक्त होती हुई दक्षिणकी ओर जाकर सीतोदाके मध्यसे. बहती है ।। १२७-१२९॥ उससे पूर्व की ओर जाकर वल्गू नामक देश है। यह देश बहुत प्रामोंसे व्याप्त, नाना प्रकारके धान्यसे सम्पन्न, दिव्य संबाहसमूहसे सहित, दिव्य मटंबोंसे भूषित, रम्य, दिव्य नगरोंसे पूर्ण, दिव्य आकरोंसे मण्डित, श्रेष्ठ, दिव्य खेड़ोंसे युक्त, दिव्य महा पट्टनोंसे रमणीय, बहुतसे दिव्य कर्बटोंसे युक्त, दिव्य, उत्तम द्रोणमुखोंसे सहित, वैताढ्य व ऋषभ पर्वतों तथा रक्ता-रक्तोदा नदियोंसे रमणीय, प्रचुर पुष्करिणियों व वापियोंसे सहित, दिव्य और वनखण्डोंसे विभूषित है ॥ १३०-१३३ ।। उस देशकी राजधानी चक्रपुरी नामकी उत्तम नगरी जानना चाहिये, जहां श्रेष्ठ चक्रवर्ती सहित उत्तम मनुष्य सब कालमें १ब अवराजिदो सि. २ब संगंधुगंधधुधा. ३ उशणाम. ४ ब संहति, क मोहंति. ५ उश कति. बरदससिकंतमणीहि तोरणतुंगा. ७बप्रतावेतस्या गाथाया उत्तरार्धमागोऽयं नोपलभ्यते. तत्रैतस्य स्थाने तमगामाया उत्तरार्धमाग उपलभ्यते. ८ उ समावण्णो, श समाउवणो. ९ ब संवाइदिव्व, १.4 पुणो. ११उ दिवखेति हत्तो, ब दिग्ववेत्तेहि जुदो, शदिग्वजेनेहि जुत्तो. १२ उश विष्वरदोणमुह, ब दिख्वावरदोममुह. १३श चक्कपुरा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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