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________________ १४६ ] जंबूदीवपण्णत्ती [ ८. १२४ जय गंगा पवर वणवेदी तोरणेहिं कयसोहा | सिंधुणदिएण सहिया सो देसो मणहरो होह || १२४ जरथ दु वेदडणगेो णवकूढविद्धूसिभो समुत्तुंगो | पुस्त्रावरेण दीहो अच्छइ सो मणहरो देखो ॥ १२५ तस्स' देखस्स या भवराजिदणामदो दु वरणयरी | कंचणपायारैजुदा वरतोरणमंडिया दिग्वा ॥ १२६ बणणिवा जिणमवणविहूसिया परमरम्मा । उववणकाणणसहिया वावीपोक्खरणिरमणीया ॥ १२७ भवराजिदणगरादो गंतूणं होइ पच्छिमदिसाए । वेसमणणामकूडो वत्रखारापन्वदो तुंगो ॥ १२८ गणवेदिहि जुत्तो वस्तोरणमंडिलो मणभिरामो । कणयमओ रमणीओ जिणभवणविद्धूसिभ दिग्वो ॥ १२९ देवाण भवणणिव हो बहुविहवरदेवदेविसंछण्णो । नाणादुमगणगहणो सरबरवावीहिं कयसोहो ॥ १३० वेसमणणामदेवो सुराण राया तर्हि समुद्दिट्ठी | वरमच्छर मज्झगदो मच्छर दिव्वाणुभावेण ॥ १३१ अवरेण तदो गंतु होइ तहा वच्छकावदीविजओ। सग्ग इव सोक्खसारो सायर इव सो रयणसंछष्णो ॥ १३२ गंगासिंधूहि जुदो वेदड्ढणगेण तह य रमणीभो । बहुपट्टणसंपण्णी बहुगामसमाउलो दिवो ॥ १३३ sses विहो' दोणामुहरयणदीवसंष्णो । संबादसंपत्तो णयरायरपरिउडो रम्मो ॥ १३४ शोभायमान गंगा नदी बहती है वह देश मनोहर है ॥ १२४ ॥ जहां पर नौ कूटोंसे विभूषित, उन्नत और पूर्व-पश्चिम दीर्घ वैताढ्य पर्वत स्थित है वह देश मनोहर है ।। १२५ ।। उस देशकी राजधानी अपराजिता नामकी उत्तम नगरी जानना चाहिये। यह नगरी सुवर्णमय प्राकारसे सहित, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, दिव्य, उन्नत भवनों के समूहसे संयुक्त, जिन भवनों से विभूषित, अतिशय रमणीय, उपवन -काननोंसे सहित तथा वापियों व पुष्करिणिय से रमणीय है ॥ १२६-१२७ ॥ अपराजित नगरसे पश्चिमकी ओर जाकर वैश्रवणकूट नामक उन्नत वक्षार पर्वत है । यह पर्वत वन वेदियोंसे युक्त, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, मनको अभिराम, सुवर्णमय, रमणीय, जिनमवनसे विभूषित, दिव्य, देवोंके भवनसमूइसे संयुक्त, बहुत प्रकारके उत्तम देव-देवियोंसे व्याप्त, नाना वृक्षसमूहोंसे गहन और सरोवरों एवं बापियोंसे शोभायमान है ।। १२८-१३० ॥ उस पर्वतपर सुरोंका राजा वैश्रवण नामक देव कहा गया है । वह उत्तम अप्सराओंके मध्य में स्थित होकर दिव्य प्रभाव से रहता है ॥ १३१ ॥ उसके पश्चिममें जाकर वत्सकावती देश है । वह रमणीय देश स्वर्गके समान सुखकी प्रकर्षता से युक्त, समुद्रके समान रत्नोंसे व्याप्त, गंगा-सिन्धु नदियों से युक्त, वैताढ्य पर्वत से रमणीय, बहुत से पट्टोंसे सम्पन्न, बहुत ग्रामोंसे व्याप्त, दिव्य, कर्बेटों व मटंबों के समूइसे युक्त, द्रोणमुखों व रत्नद्वीपोंसे व्याप्त, संबाई से संयुक्त, रम्य तथा नगरों व आकरोंसे वेष्टित है १ प व श तत्थ. २ प व समतुंगो. ३ उश तत्थ ४ प य पयार. ५ व उत्तंग प गणनिवहो, बगरनिवहो. ७ प व रया तहि. ८ प व कवट्टमंड निहो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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