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________________ -१२. १९] बारसमो उदेसो [२२० घटदायसदा यो बत्तीसा तह य एगस्वं च । ति ठाणेसु णिविट्ठा संदिट्ठी मूलदप्वस्स । सोलस चेव चमका इगितीसा तह य एगरूवं च । तिष्णेष होति ठाणौ उत्तरदम्वस्स संविट्ठी ॥ उबहिस्स पहमवकएनेसियमेत्ता हवंति ससिविबा । दीवस्स पढमवलए तेत्तियमेचा इथे दुगुणा ॥५ एसो कमो दुजाणे दीवसमुदेसु थावरससीण' । उत्तरधणपरिहीणं मादिधर्ण होइ निहिटुं ॥ ४६ सवहिस्स दुभादिधणं वलयपमाणेण तह य संगुणिदें । उत्तरहीण तु पुणो मूलघण होइ वलयाण ॥.. उत्तरधणमिच्छतो उत्तररासीर्ण तह व माधणं । रूउणेण य गुणिदे वलएण य होह वडिधणं ॥ दीपस्स पढमवलए गुणिदे वकएण ससिगणे सम्वे । वडिधणं वज्जित्ता मूलधणं होई दीवस्स ॥१५ बत्तीस तथा एक अंक, इन तीन स्थानोंमें मूल द्रव्यकी संदृष्टि निविष्ट है ॥ १३॥ सोलह चतुष्क, इकतीस, तथा एक अंक, ये तीन ही स्थान उत्तर द्रव्यकी संदृष्टिमें हैं ॥१॥ समुद्रके प्रथम वलयमें जितने चन्द्रबिम्ब होते हैं द्वीपके प्रथम बलयमें उससे दुगुणे मात्र होते हैं ॥१५॥ द्वीप-समुद्रोंमें स्थिरशील चन्द्रोंका यही क्रम जानना चाहिये। उत्तरधनसे हीन [ सर्वधनको ] आदिधन [ मूलधन ] निर्दिष्ट किया गया है ॥ १६ ॥ तथा समुद्रके आदिधनको वलयोंके प्रमाणसे गुणित करनेपर घलयोंका उत्तरधनसे रहित मूलधन होता है ॥ १७॥ उत्तर राशियों के उत्तरधनकी इच्छा करके मध्यधनको [ चौंसठ अंकोंसे माजित करके ] एक कम वळयप्रमाणसे [तथा चौसठ संख्यासे ] गुणित करनेपर वृद्धिधन प्राप्त होता है ॥ १८॥ उदाहरण-विवक्षित गन्छकी मध्य संख्यापर जितनी वृद्धि होती है वह मध्यम धन कहलाता है। जैसे पुष्करवर नामक तीसरे समुद्रमें गच्छका प्रमाण ३२ है। इसमें प्रथम स्थानको छोड़कर शेष ३१ स्थानोंमें उत्तरोत्तर ४-१ चन्द्रोंकी वृद्धि हुई है। इस क्रमसे गच्छकी मध्य संख्या रूप १६वें स्थानपर होनेवाली वृद्धिका प्रमाण ६४ होता है। यही यहाँका मध्यम धन है। अब इस मध्यम धनको पहिले ६४ संख्यासे विभक्त करके लब्धको एक कम गछसंख्या (३२) से गुणित करे, तत्पश्चात् उसे सब गच्छोंकी गुण्यमान राशिभूत ६४ से गुणा करे । इस प्रकारसे तीसरे समुद्र में होनेवाली समस्त चन्द्रवृद्धिका प्रमाण प्राप्त हो जाता है। यथाFx (३२-१) ६४ = १९८४ उत्तरधन । द्वीप [अथवा समुद्र के प्रथम वलयमें स्थित समस्त चन्द्रसमूहको वलयप्रमाणसे गुणित करनेपर वृद्धिधनको छोड़कर द्वीप [अथवा समुद्र)का मूलधन होता है (जैसे तृतीय समुद्रमें२८८४३२९२१६] १क चोदालसदं गेयं. १क ठाणेमु य दिवा, प-बप्रयोः ४३तमगाथाया उत्तराई तथा ४४तम. गापाया पूर्व स्वलितमस्ति, श द्वाणया निविहा. उश तिमि वि होति द्वाणा, बतिण्णेव होति बाणा. ४ उसंविडा. ५ श एवं कमे दु जाणे. ६कपब दीवसारेण नादिराणिं, पब संशनिदो. ८ उ श उपररासी. कमसिगुणे. १. प सम्बो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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