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________________ १९८ ] जंबूदीपण [ ८. १४५ देसस्स तस्स! या अंकावदिणामदो दु वरणयरी । मणिमयपायारज्जुदा मणितोरणमंडिया दिव्या ॥ १४५ मणिकंचणवरणिवद्दा जिणभवणविहूसिया परमरम्भा । वरखादिएहि जुत्ता वणसंडविराइया' विउला ॥ अवरेण ब्रदो गंतुं अंजणगिरि णामदो ताई होइ । वणवेदिएहि जुसो वरतोरणमंडियो दिथ्यो । १४० कचणमओ सुलुंगो णाणापासादसंकुलो पवरो । जिणंदभवणणिव हो चउकूड विहूसिभो रम्मी ॥ १४८ सीहासणमज्जागभो वरचामरविज्जमान बहुमाणो | अंजणगिरिम्मि अच्छर अंजणगामो सुरो पवसे ॥ १४९ अवरेण तदो गंतुं दोइ सुरम्म सि णामदो विजभो । सुविसुद्धरयणणिवही सुवि उलदीवेदि मंडिओ दिग्दो ॥ सुविसालणविदो सुविउलदीवे मंडिओ दिग्वो' । सुविसालखेड पउरो सुविउलरयणापरच्छष्णो ॥ १५१ सुविसालपट्टणदो सुविउल दोणामुद्देहिं संछण्णो । सुविसाळ खेत्तणिव हो तेण सुरम्म ति विक्खामो ॥ १५१ पडमाषइति णामा नगरी वहिं होइ देसमम्मि । बणवेदिएहिं जुत्ता वरतोरणमंडिया दिव्वा ॥ १५३ कैचणमरगयविद्दुमकक्रक्के यणप उमरायघरगिवद्दा | जिनईदभवणपरा धयवडम्बं तरमणीया ॥ १५४ अंकावती नामक उत्तम नगरी राजधानी जानना चाहिये। यह विशाल नगरी मणिमय प्राकारसे युक्त, मणिमय तोरणोंते मण्डित, दिव्य, मणिमय एवं सुवर्णमय गृहसमूहसे सहित, जिनभवनोंसे विभूषित, अतिशय रमणीय, उत्तम खातिकाओंसे युक्त और वनखण्ड से विराजित है ॥ १४५-१४६ ॥ उसके पश्चिममें जाकर वहां अंजन नामक पर्वत है । यह रमणीय पर्वत वन वेदियों से युक्त, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, दिव्य, सुत्रर्णमय, अतिशय उन्नत, नाना प्रासादोंसे व्याप्त, श्रेष्ठ, जिनेन्द्र भवनों के समूह से सहित और चार कूट से विभूषित है ।। १४७१४८ ॥ अंजनगिरिपर सिंहासन के मध्यको प्राप्त, उत्तम चामरोंसे वीउपमान और बहुत मानी अंजन नामक श्रेष्ठ देव स्थित है ॥ १४९ ॥ उसके पश्चिममें जाकर सुरम्य नामक देश है । यह देश अत्यन्त विशुद्ध रत्नसमूह से सक्षित, अत्यन्त विशाल द्वीपोंसे मण्डित, दिव, अतिशय विशाल नगरों के समूह से सहित, अत्यन्त विपुल द्वीपोंसे मण्डित, दिव्य, अतिशय विशाल प्रचुर खेड़ोंसे सहित, अत्यन्त विपुल रत्नाकरोंसे व्याप्त, अतिशय विशाल पट्टनोंसे युक्त, अध्यन्त विपुल द्रोणमुख से व्याप्त और अतिशय विशाल खेती के समूइसे सहित है, इसीलिये यह 'सुरग्या' इस सार्थक नामसे विख्यात है ।। १५०-१५२ ॥ उस देशके मध्य में पद्मावती नामक नगरी है । यह नगरी वन वेदियोंसे युक्त, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, दिव्य, सुत्रर्ण, मरकत, मूंगा, कर्केतन, एवं पद्मराग मणियोंसे निर्मित गृहसमूइसे सहित; प्रचुर जिनेन्द्रभवनोंसे संयुक्त और फहराती हुई ध्वजाओंके वखोंसे रमणीय है ।। १५३-१५४ ॥ उसके पश्चिम दिशाभागमें विभंगा १ उश दस्स. २ प ब विराजिया ३ प व मंदणवेदिहि. ४ उ दश सुरम चि. ५ रथम. १ प व मंडिओ रम्मो. ७प व रयणीयसं कण्णो ८ उश सुरमुचि, प य निम्मो चि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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