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विडोअपग्णसिका गणित
एक ग्रंथ बनाना पड़ेगा, तथापि, यहां बहुत ही संक्षेप में सार रूप वर्णन ही सलक मात्र देने के लिये पर्याप्त होगा। अभेद्य पुद्गल परमाणु जितना आकाश व्यास करता है, उतने आकाशप्रमाण को प्रदेश कहा गया है। अमूत आकाश में इसके पश्चात् भेद की कल्पना का त्याग होना प्रतीत होता है, तथा मूर्त द्रव्य में ही भेद अथवा छेद की कल्पना के आधार पर मुख्य रूप से आकाश में प्रदेशों की कल्पना की गई है, जो अनुणिबद्ध है। आकाश जहां कथंचित् अखंड (Continuous) है, वहां कर्थचित् प्रदेशवान भी है। इस प्रदेश (खंड, Point) के आधार पर, संख्याओं का निरूपण करने के लिये उपमा-मान भी स्थापित किये गये हैं। पल्योपम और सागरोपम उपमा प्रमाण समय की परिभाषा के आधार पर स्थापित किये गये हैं। चौथे महाधिकार में गाथा २८४, २८५ में समय का स्पष्टीकरण किया गया है। सूच्यंगुल, प्रतयंगुल, बगश्रेणी, रज्जु आदि केवल एक महचा की सूचक नहीं हैं, वरन् जहां संख्या मान का प्ररूपण होता है, वहां इनका अर्थ, इन लम्बाइयों में स्थित प्रदेश बिन्दुओं की गणात्मक संख्या है। एक स्कंध में अनन्त परमाणुओं के होने का अर्थ, संख्या प्ररूपणा के आधार पर, एक स्कंध (उवसनासन) की लम्बाई में स्थित प्रदेश बिन्दुओं की संख्या अनन्त नहीं है, वरन् कुंछ और ही है। एक आवलिमें समयों की संख्या जघन्य युकासंख्यात होती है। इस प्रकार कथन कर, संख्या मान के लिये उपमा से काल प्रमाण और आयाम प्रमाण में सम्बन्ध स्थापित किया गया है।
log. ( 27 ) ()-(प) जहां अं, सूच्यंगुलके प्रदेशोंकी गणात्मक संख्या है, म पस्योपम काल में स्थित समयोंकी संख्या है तथा अ, अद्धापल्य काल राशि (कुलक) में स्थित समयों की संख्या है। ऐसे प्रदेश की अवधारणा के आधार पर धर्मादि द्रव्यों में संख्या स्थापित कर, तथा शक्ति के अविभागी अंश के आधार पर केवलज्ञान आदि अनन्त राशियों की स्थापना कर, उनके सूक्ष्म विवेचनों को संख्या मान अथवा द्रव्यप्रमाण का विषय बनाया गया है।
आधुनिक गणितश बिन्दुकी परिभाषाकी भी उपेक्षा करता है और बिन्दु कहलाई जानेवाली वस्तुओं की राशि से समारम्भ करता है। ऐसी अपरिभाषित वस्तुएँ एक उपराशि या उपकलक ( Subset) की रचना करती हैं जो सरल रेखा कहलाती है, इत्यादि । ऐसे अपरिभाष्य बिन्दु को लेकर, बोलज़ेनोंके साध्य के आधार पर, जार्ज केन्टर ने अनन्त विषयक गणित की संरचना की, जिसे अमूर्त राशि सिद्धान्त (Abstract set theory) कहा जाता है। बार्ज केन्टर ने, परिमित और पारपरिमित (Trans finite) राशियों पर कार्य करने में असंख्यात की उपेक्षा की है। परन्तु, पारपरिमित गणात्मक संख्याओं के विभिन्न प्रकार बतलाये गये हैं। इस प्रकार, पारपरिमित गणात्मकों और अखण्ड फैलाव (Conti. nuum ) के सिद्धान्तों से प्राप्त गणितीय दक्षता, अमूर्त राशि सिद्धान्त को जन्म दे चुकी है, परन्तु उसकी वृहद संरचना करते समय, गणितज्ञों के सम्मख विभिन्न मिथ्याभास ( Paradox) उपसि हुए हैं, जिनका सर्वमान्य समाधान नहीं हो सका है। समाधान के लिये, इस शताब्दी में गणितीय दर्शन में विभिन्न विचारधाराओं के आधार पर परिगणित (Meta-mathematics) की संरचना, गणितीय तकें के रूप में हो चुकी है। यह केवल प्रतीक रूप में है। ज़ीनों के तर्क भी सर्वमान्य समाधान को प्राप्त नहीं हो सके हैं, जहाँ परिमित रेखा में अनन्त विभाज्यता का खण्डन किया गया है। और मेरी समझ में अन्तिम दो तर्कों में समय की अवधारणा को अन्यथा युक्ति खंडन के आधार पर पुष्ट किया गया है। पायथेगोरियन युग में, बिन्दु की परिभाषा, "स्थिति वाली इकाई थी। पायथेगोरियन सिद्धान्त के अनुसार, फिलोलस ( Philolaus) ने कहा है "All things which can be known have
१ सन्मतिसन्देश, वर्ष १, अंक २, पृ० ७.
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