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________________ जंबूदीवपण्णतिकी प्रस्तावना में से व्यय कर दी जाने पर भी, अनन्त का प्रमाण अनन्त रहता है, अथवा उसकी अनन्त संज्ञा नष्ट नहीं हो सकती है । यद्यपि संख्या के २१ भेदों का उल्लेख तथा उन्हें उत्पन्न करने का पूर्ण विवरण तिलोय पण्णत्त में है, तथापि उन भेदों का वास्तविक अर्थ समझना वांछनीय हैं। संख्यात से उत्कृष्ट संख्यात की प्राप्ति होने पर, केवल १ जोड़ने पर जघन्य परीत असंख्यात प्राप्त हो जावे, पर उस संख्या में यह असंख्यात संज्ञा उपचार रूप में दी गई है । वास्तविक असंख्यात वहाँ से प्रारम्भ होता है, नहाँ उत्कृष्ट असंख्यात की प्राप्ति के लिये, वास्तविक असंख्यात संज्ञाधारी धर्म द्रव्यादि राशियों को क्रमबद्ध गणना से प्राप्त संख्यात में जोड़ा जाता हैं । इसी प्रकार, उत्कृष्ट असंख्यात असंख्यात में १ बोड़ने पर जघन्य परीत अनन्त की जो उत्पत्ति है वह अनन्त संज्ञा की धारी इसलिये है कि वह संख्या अत्र अवधिज्ञानी का विषय नहीं रही। इसलिये औपचारिक रूप से अनन्त शब्द द्वारा बोधित है, वास्तविक अनन्त नहीं हैं । अनन्त की प्राप्ति के लिये इस संख्या से क्रमबद्ध गणना के पश्चात् जो असंख्यात से ऊपर प्रमाण राशि उत्पन्न होती है, उसमें उपधारित ( Postulated ) अनन्त राशियां जत्र मिलाई जाती है तभी वह वास्तविक अनन्त संज्ञा की अधिकारिणी होती है । इनके आधार पर द्रव्य, क्षेत्र और काल के आधार पर कहे गये प्रमाण तथा उनका अल्पबहुत्व ( Calculus of relations ) मौलिक हैं, मनोरंजक भी है। यहाँ अस्पबहुत्व ( Comparibility ) के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण तथ्य संक्षेप में बतलाना आवश्यक है। वह यह कि किसी अनन्त से अपेक्षाकृत बड़ा अनन्त भी होता है। उदाहरणतः यह बात मन में साधारणतः नहीं बैठती है कि क्या अनन्त काल के एक एक करके बीतनेवाले समयों में संसारी जीव राशि कभी समाप्त नहीं होती । इस सत्य का दर्शन करने के लिये और समाधान के लिये हम पाठकों को कैटर द्वारा प्रस्तुत दशमलव तथा एक एक संवाद पर आधारित संततता ( Continuum ) के गणात्मक और प्राकृत संख्याओं की राशि ( १, २, ३, ་...) के गणात्मक का अल्पबहुत्व पठन करने के लिये आग्रह करते हैं । (जिनागम प्रणीत अल्पबहुत्व एवं आधुनिक राशि सिद्धान्त के अल्पबहुत्व के तुलनात्मक अध्ययन के लिये सन्मति सन्देश, वर्ष १, अंक ४ आदि देखिए ) । २ संख्याओं के विभाजन का यह विषय लौकिक गणित का नहीं है, वरन् अलौकिक अथवा लोकोत्तर गणित का है, जैसा श्री अकलंक देव के तत्त्वार्थवार्तिक में उल्लेख है । यूनान में भी, पायथेगोरियन युग में मीमतिकी ( paonpattan) शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसके विभिन्न अर्थ लगाये जाते हैं, तथापि यह निश्चित है कि लोगिस्तिकी ( AoTeatexn ) - गणना कला तथा अर्थमिति की (age,ountern ) —संख्या सिद्धान्त, ग्रीक गणित में मूलभूत था । प्लेटो ने कहा है—“But the art of calculation (ofeotexn ) is only preparatory to the true science; those who are to govern the city are to get a grasp of Loriotixn, not in the popular sense with a view to use in trade, but only for the purpose of knowledge, until they are able to contemplate the nature of number in itself by thought alone."" ज्यामिति अवधारणायें ति. प. में प्रथम महाधिकार की गाथा ९१ से लेकर १३५ वीं गाथा तक, ज्यामिति अवधारणाओं को इस शैली से रखा गया हैं कि ये ४४ वाक्य अथवा सूत्र जैन सिद्धान्त शास्त्री के लिये इतने सुपरिचित प्रतीत होंगे कि उनका महत्व दृष्टिगोचर नहीं होगा । जैन सिद्धान्तों को न जाननेवाले के लिये ये इतने अपरिचित सिद्ध होंगे कि उन्हें भी ये महत्व- विहीन प्रतीत होंगे। इनसे परिचित कराने में तो १] Fraonkel, p. 64, ? Heath, vol. i, pp. 12 to 14. Heath, vol. i. p. 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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