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________________ तिलोय-पण्णत्तिका गणित परम्परा के आधार पर त्रिकालवर्ती विश्व-रचना का सार रूप से परिचय कराने वाला यह (तिलोय पणत्ति नामक ) ग्रंथ मुख्यतः गणित ग्रंथ नहीं है। सूत्रबद्ध प्ररूपणा में केवल फलों का वर्णन तथा कहीं कहीं उपयोग में लाये गये सूत्रों का वर्णन रहता है। इस ग्रंथ में कहीं कहीं गणित की झलक होने से, गणना की शैली का कुछ वर्णन सम्भव हो सका है। ऐतिहासिक दृष्टि से, यह ग्रंथ महत्वपूर्ण प्रतीत होता है। अन्य समकालीन अथवा कुछ पूर्वोत्तर ग्रंथों की तुलना में, इस ग्रंथ में कुछ ऐसे प्रकरण तथा निरूपण दिये गये हैं जिनके आधार पर तिलोय-पण्णत्ति की रचना से शताब्दियों पूर्व प्रचलित ज्ञान के विषय में आभास मिल जाता है। सबसे महत्वपूर्ण वस्तु असंख्यात विषयक संख्यायों की प्रतीकों के आधार पर प्ररूपणा है। इन प्रतीकों के आधार पर भाषा विज्ञान शास्त्री उनके उपयोग में लाये जाने वाले काल को निश्चित कर सकता है। यतिवृषभ के द्वारा कब इसकी रचना हुई, यह बात इतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि इन क्रियात्मक प्रतीकों के उपयोग का रचना काल । दूसरी महत्वपूर्ण वस्तु, विविध वेत्रासन आदि आकार के सांद्रों का घनफल, छेदविधि-निरूपण तथा वृत्त सम्बन्धी माप है। ज्यामिति के क्षेत्र में भारतवर्ष बहुत पीछे रहा है। परन्तु इन ज्यामिति विधियों के आधार पर मिश्र, बेबीलोन, यूनान, चीन, आदि देशों की रेखागणित से सह सम्बन्ध नहीं तो तुलनात्मक अध्ययन हो सकता है। इसके पश्चात् संख्या प्ररूपणा, भेणि-प्ररूपणा और अल्पबहुत्व तथा ज्योतिष सम्बन्धी सिद्धान्तों का मात्र प्रतिपादन गणितज्ञ के लिये कितने रोचक होंगे, यह निम्न लिखित विवेचन से स्पष्ट हो जावेगा। संख्या सिद्धान्त आधुनिक गणितज्ञ के लिये संख्या शब्द की स्पष्ट परिभाषा की आवश्यकता नहीं रहती। तिस पर भी, व्यापक रूप से सर्व प्रकारकी संख्याओं, वास्तविक और काल्पनिक, परिमेय और अपरिमेय, पूर्णोक और भिन्न आदि का निरूपण करने के लिये यह कहा जा सकता है कि संख्या केवल समान राशियों (ढेरों) की राशि है, और कुछ नहीं। गणित के इतिहास से प्रतीत होता है कि सबसे पहिले महावीराचार्य ने काल्पनिक संख्याओं को पहिचान कर उनको उपयोग में न लाने का कथन किया था। तथापि, जैसे आदमी का अर्थ आदमी की आधी ऊँचाई लेकर उसका उपयोग किया जा सकता है, उसी प्रकार काल्पनिक संख्याओं का आधुनिक-युगीन विभिन्न विद्वानों में विस्तृत और महत्वपूर्ण उपयोग हो चुका है। पायथेगोरियन युग में मी अनन्त के विषय में वार्तायें चल पड़ी थीं, परन्तु जीनो के तर्कों ने बाद के गणितज्ञों को उस ओर आगे बाने में भय उत्पन्न कर दिया था। जब गेलिलियो के पश्चात उन्नीसवीं सदी में जार्ज केटर ने अनन्त विषयक गणित की संरचना प्रारम्भ की, उस समय गणितज्ञों ने कहा था कि यह विषय १०० वर्ष अति पूर्व लाया गया है। किन्तु भारतवर्ष में यह विषय ईसा से कुछ शताब्दियों पूर्व प्रतिपादित हो चुका था। पुष्पदंत और भूतबलि के ग्रंथ षटखंडागम तथा उनके पश्चात् के प्रायः सभी प्रयों में असंख्यात और अनन्त शन्द बिलकुल साधारण शैली में उपयोग में लाये जाते हैं, मानों ये हमसे अपरिचित ही नहीं है। तिलोय-पण्णति में. असंख्यात और अनन्त के वास्तविक दर्शन को क्रमशः अवधिज्ञान तथा केवलज्ञानी का विषय बनाया है। वीरसेन ने अनन्त संज्ञा उस राशि को दी है, जो व्यय के होत रहने पर भी अनन्त काल में समाप्त न हो। संख्यात अथवा असंख्यात प्रमाण राशि, अनन्त Fraenkel, p. 2. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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