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________________ -७. १५३) सत्तमा उसो माणेण तेण राया महंतगवण गम्विदो संतो। चिंतेदि सयमापक्किातं ठामि गिरिसिहरे ॥१५. दण रिसभसेकं णाणाचक्कीण जामसंछण्ण' । चक्कहरो णरपवरो जिम्माणी तक्खणे जाभो ॥ve लुहिऊण एकरुणामं मप्पणणाम पि तत्य लिहिऊण | साहित्ती तेखंडे तेणेव कमेण णीसरह । १४९ णिग्गा भवरेण णिवो पुम्वदुवारेण तह य णीसरह । वेदड्ढस्स य‘णेया संखेणेव य समुट्ठिा ॥ १५. छक्खंरकग्छविजयं साहित्ता सुरणरिंदसंजुत्तो। राय। ससेणसहिलो खेमाणयरिं अणुप्पत्तो ॥१५॥ विजन दु समुट्ठिो' खेमाणयरस्स चक्कवट्टीणं । सम्वाण ताण णेया एसेव कमो समासेण ॥ १५२ वासवतिरी वियपमकमलजुगं महंतगुणजुस । वरपउमणंदिणमियं सुवासुपुज्ज जिणं दे ॥ १५१ ॥य जंबूदीषपण्णत्तिसंगहे महाविदेवाहियारे कच्छाविजयवाणी णाम सत्तमो उद्देसो समत्तो॥ ७॥ . ॥ १४६ ॥ चक्रवर्ती उस मानसे महान् गर्वको प्राप्त होकर अपने महात्म्यकी कीर्तिको ऋषभाचलके शिखरपर स्थापित करनेका विचार करता है ॥ १४७ ॥ पुरुषोंमें श्रेष्ठ चक्रवती ऋषम शैलको नाना चक्रवर्तियों के नामोंसे व्याप्त देखकर तत्क्षण मानसे रहित हो जाता है ॥ १४८॥ उन अनेक नामों से एक नामको मिटाकर और वहाँ अपना भी नाम लिखकर तीन म्लेच्छखण्डों को वशमें करनेके पश्चात् चक्रवर्ती उसी क्रमसे बाहिर आता है ॥१४९ ॥ चक्रवर्ती पश्चिम द्वारसे विजयाध पर्वतके भीतर प्रवेश करता है और पूर्व द्वारसे वापिस आता है, ऐसा संक्षेपसे निर्दिष्ट किया गया जानना चाहिये ।। १५० ॥ छह खण्ड युक्त कच्छा विजयको जीत कर देवों व राजाओंसे संयुक्त चक्रवर्ती अपने सैन्य सहित क्षेमा नगरीको प्राप्त होता है ।। १५१ ॥ यह क्षेमा नगरीके चक्रवर्तियोंकी विजयका वर्णन किया गया है। यही क्रम संक्षेपसे सब चक्रवर्तियोंके विजयका जानना चाहिये ॥ १५२ ।। जिनका चरण-कमलयुगल इन्द्रके मुकुटसे चुम्बित है अर्थात् जिनके चरणोंमें इन्द्र मुकुटको रखकर नमस्कार करते हैं, जो महागुणोंसे युक्त हैं, और श्रेष्ठ पद्मनन्दिसे नमस्कृत हैं, उन वासुपूज्य जिनेन्द्रको नमस्कार करता हूं ॥ १५३ ॥ ॥ इस प्रकार जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसंग्रहमें महाविदेहाधिकारमें कक्षा-विजय-वर्णन नामक सातवा उद्देश समाप्त हुआ ॥ ७॥ १पब पावेसि गिरिसिहरो. २ पब सण. ३ पब मक्खणे. ५ उपशास. ५प। भायाणणाम..उ सोहिता, श साहित. ७ प कम्मेण णिस्सरइ. ८पब वेदड्टम्या..उश विजयो समरिहो, पसिनन्दु सम्मुदिटो. १.पब सवासपुज्जं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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