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________________ जंबूदीवपण्णती [७.१५७पुरवि विउविजण मंजणगिरिसणिभं महामेधं । वरिसइ सेणस्सुवरि मुसळपमाणेहि धारेवि ॥ ॥ मेवावरूद्धगयणं विख्याविप्फुरंतरमणीयं । गज्जतघोरसई फुरिय इव मंबरं सयलं ॥३८ अंतररहि बरिसह दिणरयणी' सस सस परिमाणं । जायं सायरसरिसं गिरिवरबुईतबहुसलिल' ॥ सनिलम्मि तम्मि उपरि तरंतबरचम्मरयणठियसेण्णं । उस्थिदसिदादव विसायपरिवन्जिय सम्वं ॥ १४. बिस्वमायामेण म बारहजायणपमाण णिष्टुिं । चम्मरयणस्स संखा सिदादवत्तस्स तह चेव ॥॥ चम्मरवणो ण दुई जबम्मि सेदादवत्तवररयणो । ण वि छिज्जइ ग वि मिज्जइ सहस्सदेवेहिं कयरक्लो । गाडगब पाकाहरी देवेहि कमो ति घोरउवसगं । तह मुख्चह वरवाणं जह देवा णिप्पमा जादा ॥४३ बसविस्कममाहप्पं दणं ते सुरा य मिाय । मागंपूर्ण सम्बे गरिंदइंदस्स पणमंति ४४ कणारयणेहि तदा इस्वीमस्सादिएहिं बहुएहि । कंचणमणिरयणेहि य गरिंदईद पपुज्जति ॥ १५ णाऊण सयमहप्पं चक्कहरो माणगविभो होइ । गवि को वि ममसरिसो पयावजुत्तो त्ति मपर्णतो" ॥1॥ देवजनगिरि जैसे महामेधको विक्रिया करक सेनाके ऊपर मूसलके बराबर मोटी धाराओंसे वर्षा करता है ॥१३७ ॥ उस समय मेघोंसे आच्छादित, विद्युत् रूप सताके प्रकाशसे रमणीय और मेघगर्जनके भयानक शब्दसे संयुक्त समस्त आकाश मानो झट पड़ता है ।।१३८ । उक्त देव सात सात दिन-रात्रि प्रमाण निरन्तर वर्षा करता है, जिससे समुद्र के समान बड़े बड़े पर्वतोंको डुबानेवाला जल उत्पन्न हो जाता है ।। १३९ ॥ उस जलके ऊपर तैरते हुए उत्तम चर्म-रत्नपर स्थित और धवल आतपत्र (छत्र-रत्न ) को ऊपर किये हुए समस्त सेना निषादसे रहित होती है ॥१४० ॥ चर्म-रत्नका विष्कम्भ व आयाम बारह योजन प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है । यही प्रमाण धवल आतपत्रके विष्कम्भ व आयामका भी है ॥ १४१॥ हजार देवासे रक्षित चर्म-रत्न और धवल आतपत्र-रत्न न जलमें डूबते हैं और न छेद-भेदे भी जाते हैं ।। १४२॥ देवासे किये गये घोर उपसर्गको जानकर चक्रवर्ती ऐसा उत्तम माम छोड़ते हैं जिससे वे देव निष्प्रभ हो जाते हैं ॥ १४३ ॥ चक्रवर्तीके बल-विक्रमके माहाम्यको देखकर वे सब देव औR म्लेच्छ राजा आकर उसको प्रणाम करते हैं ॥१५॥ इसके अतिरिक वे बहुतसे कन्या-रत्नोंसे, हापी व अश्वादिकोंसे तथा सुवर्ण, मणि एवं रत्नोंसे चक्रवर्तीकी पूजा करते हैं ॥१४५॥ मुझ जैसा प्रतापी दूसरा कोई भी नहीं है, ऐसा मानता दुभा अपने माहात्म्यको जानकर वह चक्रवर्ती मानसे गर्वको प्राप्त होता है , पुष्परविओविण्य, श पुण्गरवि विषिण. २५ ष दिणरयणणी. उशबूतबहुसलिलं, प नईतवरसलिला. ४ ४ चम्मरयणषियसेणं, पब चमरयमद्विय, श चम्मरयरसरिसेनं. ५पद विषया. +श दियादवचनस्य चेक. ७ उ बुद्धर, पब धुर, श दुगु. ८ पब मि. ९ ड श पासादिपविं. बनणादिपदि. १. बहुदेहि, बहुबेह, पब पयाविजुलो विमण्णतो. www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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