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________________ [ अट्टमो उद्देसो ] विमल जिनिंद' पणमिय विसुद्धवरणाणदंसणपईवं । पुष्वविदेहविभाग' समासदो संपवक्लामि ॥ १ कच्छा पुग्वेणं' गंतूणं तत्थ होइ वरसेलो । वणवेदिर्दि जुत्ता घरतोरणमंडिओ पवरो ॥ २ णामेण चित्तकूडो णाणापासार्देसंकुलो दिग्वो । चडकूडतुंग सिद्दरो जिणभवणविहूसिमो रम्मो ॥ ३ बहुदेवदेविपुण्णो भस्समुद्दाकार वस्त्र संठालो' । वरकंचणपरिणामो मणिरयणविहूसिनो परमरम्मो' दक्खिणदिसेण तुंगो तण्णामादेवरायसाहीणो । णाणावरुत्ररगहण पोक्खरणित डायसंजुत्तो ॥ ५ वत्तो जगाडु पुग्ने देखो बहुगामै संकुलो होइ । णामेण सह सुकच्छा कच्छीसमसरिस निहिडो ॥ ६ छक्खंडमंडलो सो नगरायर खेडपट्टणसमग्गो । दोणामुदेहि रम्मी रमणदीवेहि' संपुण्णो ॥ ७ रसारसोदेहि य वेदढणगेण मंडियो पवरे । । पोक्खरणिवाविपउरो उवसायरसद्दगंभीरो ॥ ८ बरसाविप्पपउरो जवगोहुम उच्छखेन्तसंपुण्णो । नाणादुमगणणिव हो वरपण्यदमंडिभो दिग्वो ॥ ९ तस्स विजयस्स मंझे खेमपुरी नाम पट्टण पवरो । खेमापुरविथारो बहुभवणविहूसिमो र मो ॥ १० विशुद्ध व उत्तम ज्ञान दर्शन रूप प्रदीपसे युक्त ऐसे त्रिमल जिनेन्द्रको प्रणाम करके संक्षेपसे पूर्व विदेह के विभागका वर्णन करते हैं || १ || कच्छा के पूर्व में जाकर वहां वनवेदियों से युक्त और उत्तम तोरणोंसे मण्डित श्रेष्ठ पर्वत है । यह चित्रकूट नामका पर्व नाना प्रासादोंसे व्याप्त, दिव्य, चार कूटोंसे युक्त उन्नत शिखरबाला, जिनभवन से विभूषित, रमणीय, बहुत देव देवियों से परिपूर्ण, घोड़े के मुख जैसे आकारवाला, उत्तम सुवर्णके परिणाम रूप, મંગ व रत्नोंसे विभूषित, अतिशय रमणीय, दक्षिण दिशा की ओर उन्नत, अपने समान नामवाळे देवराज के स्वाधीन, नाना तरुवरोंसे गहन और पुष्करिणी व तालाबों से संयुक्त है ॥ १-१॥ उस पर्वत के पूर्व में बहुत ग्रामोंसे व्याप्त सुकच्छा नामक देश है, जो कच्छा के सम-सदृश कहा गया है || ६ || वह दिव्य देश छह खण्डोंसे मण्डित; नगर, आकर, खेड़ों एवं पट्टनों से परिपूर्ण; द्रोणमुखसे रमणीय, रत्नद्वीपोंसे सम्पूर्ण रक्ता-रक्तोदा नदियों व विजयार्ध पर्वत से मण्डित, श्रेष्ठ, प्रचुर पुष्करिणियों व वापियोंसे सहित, उपसमुद्र के शब्दले गम्भीर, उत्तम शालि धान्यके खेतोंकी प्रचुरतासे युक्त; जौ, गेहूं एवं ईखके खेत से सम्पूर्ण, नाना वृक्षजातियों के समूहसे संयुक्त और उत्तम पर्वतोंसे मण्डित है ।। ७-९ ॥ सुकच्छा विजयके मध्य में क्षेमपुरी नामकी श्रेष्ठ नगरी है। क्षमापुर के समान विस्ताखाली यह रमणीय नगरी बहुत भवनोंसे विभूषित है १ प ब जिर्णदं २ प व विदेहमागं. ३ प व पुष्याणं. ४ उश पासादा. ५ प ब संठणं, श ठाणे ६ उश विसिओ रम्मो. ७ प ब गमो. ८ प व सुकछो तह कच्छा. ९ उ श स्यणदीवेहि १० उ जनगोचउछ, पब जावगेहुम उच्छ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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