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________________ १९.] जंदावपण्णसी [११.५१एगोरगवेसाणिगलंगूलिग तह भभासया गेया । इयकण्णा य कुमाणुस तहेव धरकण्णपावरणा ॥५॥ संबससकण्णमणुया तुरंगवरसीहसुणहमहिसमुहा । सूवरैवग्घउलमु मिगवाणरमीणवरवयणा ॥ ५२ गोमेसमेघवदणा विज्जूभादरिसमतेकरिवदणा | कालोदए समुद्दे कुमाणुसा होति णिहिट्ठा ॥ ५३ कोसेक्कसमुत्तंगा पलिदोवमभाउगा समुट्ठिा । ममलपमाणाहारा चउत्थभत्तेण पारिति” ॥ ५४ भोत्तण मणुयभोयं मरिदूण य ते कुमाणुसा सम्वे । उप्पज्जति महप्पा तिवग्गदेवाण भवणेसु ॥ ५५ कालसमुहस्स तहा वज्जमया वेदिया समुद्दिट्टा । चठगोउरसंजुत्ता चउदसवरतोरणुत्तुंगा ॥ ५६ पोक्खरवरो दु दीवो उदधि कालोदयं परिक्खिवदि । सोलस दुसयसहस्सा विस्थारो चक्कवालम्हि ॥ ५७ तस्स य दीवस्सई परिरयदि य माणुसोत्तरो सेलो । बाहिरभागणिविट्टो तहीवद्धं परिक्खिवदि ॥ ५८ सत्तरस एक्कवीसाणि उच्छिषो माणुसुत्तरो सेलो । चत्तारि जोयणसया तीसं कोसं च उम्वेधी ॥ ५९ चत्तारि जोयणसदा चवीसाई च वित्थडा उवरि । दस बाबीसा मूले १३ तेवीसा सप्त मज्झम्हि ॥ ६० एक ऊरुवाले, वैषाणिक, लांगलिक, तथा अभाषक, अश्वकर्ण, कर्णप्रावरण, लम्बकर्ण, शशकर्ण, तुरंगमुख, उत्तम सिंहमुख, श्वानमुख, महिषमुख, शूकरमुख, व्याघ्रमुख, उलूकमुख, मृगवदन, वानरवदन, मीनवदन, गोवदन, मेषवदन, मेघवदन, विद्यद्वदन, आदर्शवदन और गजवदन होते हैं; ऐसा निर्दिष्ट किया गया है ॥ ५१-५३ ॥ एक कोश ऊंचे, एक पल्यापम प्रमाण आयुवाले और आंवलेके प्रमाण आहार करनेवाले ये कुमानुष चतुर्थ भक्तसे पारणा करते हैं ॥५४॥ वे सब कुमानुष मनुष्योंके योग्य भोगको भोग कर और फिर मरकर भवनत्रिक देवोंके भवनोंमें महात्मा उत्पन्न होते हैं ।। ५५॥ धातकीखण्ड द्वीपके समान कालोदक समुद्रके भी चार गोपुरोंसे संयुक्त और उत्तम चउदह तोरणोंसे समुन्नत बज्रमय वेदिका निर्दिष्ट की गई है ।।५६ ॥ कालोद समुद्रको चारों ओरसे पुष्करवर द्वीप वेष्टित करता है । इसका मण्डलाकार विस्तार सोलह लाख योजन है ॥५७॥ उस द्वीपके अर्ध भागको मानुषोत्तर शैल वेष्टित करता है । पुष्करा के बाह्य भागमें स्थित यह पर्वत उक्त द्वीपके अर्ध भागको वेष्टित करता है ॥ ५८ ॥ मानुषोत्तर शैल सत्तरह सौ इक्कीस योजन ऊंचा तथा चार सौ तीस योजन व एक कोश अवगाहसे संयुक्त है ॥ ५९ ।। इसका विस्तार ऊपर चार सौ चौबीस योजन, मूलमें दश सौ बाईस योजन और मध्यमें सात सौ तेईस योजन है ॥ ६० ।। मानुषोत्तर शैलपर चारों ही १३श वेसोणिग, ब वसाणिग. २ उकब यमासूया. ३कब सूयर. ४क अलूमुह. ५उ मा. विमआदरसमंत, बबिज्जयाबरिसमस,क विजयादरसमच. ६उश आमलपमाणहारा, बामळपमाणआणा..कपात, आति,श परिसि. ८शचउदसवरसमुत्तंगा. ९ब परिरयदीव. १.उश निवितो. सकदीसानि उस्सिको. १२ वीत्यये, व वित्थरो. १३ उश पूले. Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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