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________________ १९६ ] जंबूदीवपण्णत्ती [११.११० 1 मूलं मज्मेण गुणं मुहसहिदद्धं तु तुंगकदिगुणिदं' । घणगणिदं जाणिज्जो मुदिंगसंठानखेत्तम्हि ॥ ११० तिरियालोयायारप्यमाणै हेद्वा दु सत्तपुढवी णं । आयासंतरिदाओ वित्थिष्णयरा य डिडों ॥ १११ धम्मा वंसा मेत्रों अजणरिद्वा य होदि अणिउज्झ । छडी मघवी पुढवी सत्तमिया माघवी णाम ॥ ११२ रयणाँसक्करवालुयपंकप्लभ धूम पंचमी पुढत्री । छडी तमप्पभा वि य सत्तमिया तमतमा गाम ॥ ११३ एयं च सयसहस्सा होदि असीदिं च जोयणसहस्सा । रयणप्पभाबहुलियं ' भागेसु वि' तीसु पविभत्तं ॥११४ खरभागपंकबहुला अप्पबहुलो य होइ गायव्वा । एदे तिष्णि विभागा रयप्पभणामपुदवीए ॥। ११५ सोलस दु खरे भागे पंकबहुले तहा य चुलसीदिं । अप्पबहुले असीदी बोद्धव्वा जोयणसहस्सा ॥ ११६ हो उसमें मुखप्रमाणको मिलाकर और फिर उसे आधा करके उंचाईके वर्गसे गुणित करने पर प्राप्त राशि मृदंगाकार क्षेत्र ( मध्यलोक ) में घनफलका प्रमाण जानना चाहिये ( ? ) ॥ ११० ॥ विशेषार्थ - वृत्त क्षेत्रके विस्तारका जो प्रमाण हो उसका वर्ग करके फिर उसे दशसे गुणित करे । इस प्रकार जो राशि प्राप्त हो उसका वर्गमूल निकालनेपर वृत्त क्षेत्रकी परिधिका प्रमाण प्राप्त होता है । इस परिधिप्रमाणको विस्तारके चतुर्थ भाग ( ) से गुणित करने पर वृत्त क्षेत्रका क्षेत्रफल व उक्त क्षेत्रफलको वृत्त क्षेत्रके बाहल्यसे गुणित करनेपर उसके घनफलका प्रमाण आता है । जैसे—मनुष्यलोकका विस्तार ४५००००० यो. व बाहल्य उसका १००००० यो. है । अत एव ४५०००००' x १० = १४२३०२४९ यो. परिधि; १४२३०२४९ × ४५००० १६००९०३०१२५००० क्षेत्रफल १६००९०३० = १२५००० × १००००० = १६००९०३०१२५०००००००० घनफल । तिर्यग्लोक के नीचे धर्मा, वंशा, मेघा, अंजना और अरिष्टा ये यादृच्छिक नामवाली तथा छठी मघवी और सातवीं माघवी नामक, ये उत्तरोत्तर अधिक अधिक विस्तीर्ण सात पृथिवियां आकाशसे अन्तरित होती हुई नीचे नीचे स्थित हैं ॥ १११-११२ ॥ रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, पांचवीं धूमप्रभा, छठी तमः प्रभा और सातवीं तमस्तमः प्रभा, ये उक्त पृथिवियोंके नामान्तर हैं ॥११३॥ तीनों ही भागों में विभक्त रत्नप्रभाका बाहल्य एक लाख अस्सी हजार योजन प्रमाण है ॥ ११४ ॥ खरभाग, पंकबहुलभाग और अब्बहुलभाग, ये तीन रत्नप्रभा नामक पृथिवीके विभाग जानना चाहिये ॥ ११५॥ इनमेंसे खरभागका सोलह हजार, पंकबहुलभागका चौरासी हजार और अब्दुलभागका अस्सी हजार योजन प्रमाण वाहल्य जानना चाहिये ॥ ११६ ॥ चित्रा, वज्रा, वैडूर्या, लोहितांका, १ ब तुंगतुगकादिगुणिदं श तु तुंगगुणिदं २ उश व्वणगुणिदं ३ उ क श लोयायारं पमाण, यायारं पुमा ४ उश त्रित्थिन्नयरायहेडिडा, क व वित्थिष्णयरायहेद्वेद्वा ५ उब श धम्मा मेघा वंसा. ६ उश अणिउंजा. ७ उ ब श रदगा ८ उ वेतुलियं, क ब बेहुलिया, श वेदुलियं. ९ क अ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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