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________________ ६०] जैबूदीपणाची ( ४.२९ कष्पतरुजनिय बहुविहपवणवसुच्छलिये कुसुमगंध। । मयरंदरेणुवासिय साणुसिलाविड कवडर मो' || २९ कम्मधणबहलकक्खडसिलचूरणजिणवरिंदभवणोघो । मणिकणयरयणमरगयधरणीहरणरवई मेरू ॥ ३० जो बहुवे। सो हु कडी' जो बहुभागो सि। ति णिद्दिट्ठो । जो उच्चो सो काम सध्वणगाणं समुद्दिट्ठो ॥३१ डिसिर विसुद्ध सयकाय विभाजिदं तु इच्छगुर्ण । सिरसहियं णिडिट्टो इच्छायामं हवे या ॥ ३२ 'दस विक्खंभेण गुणं विश्वंभं तहस लद्ध जं मूलं । वहाण दीवसायरगिरीण परिधी हवे तं तु ॥ ३३ विक्वं भवग्गदस गुणकरणी वहस्स परिरभो होइ । विक्खभचदुम्भागे परिश्यगुणिदे हवे गणिदं ॥ ३४ सहित, लाखों देवेंस व्याप्त होनेपर उनके कोलाहल शब्दसे रमणीक, कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुई बहुत प्रकारको वायुके प्रभावसे उछलते हुए कुसुमोंकी गन्धसे व्याप्त, परागकी धूलिसे सुगन्धित सानुशिला युक्त विशाल तटोसे रमणीय, तथा कर्म रूपी अतिशय सघन कठोर शिलाओं को चूर्ण करनेवाले जिनेन्द्र भवनों के समूह से सहित ३ ॥ २६-३० ॥ सत्र पर्वतका जो बहुभाग है वह कटि, जो लघु भाग है वह शिर, और जो उच्च भाग है वह काय कहा गया है ॥ ३१ ॥ कटि और शिरको परस्पर घटाकर शेषमें अपनी कायका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसे इच्छासे गुणा करके शिरमें मिला देनेपर इच्छित आयामका प्रमाण जानना चाहिये || ३२ ॥ = उदाहरण- मेरु पर्वत की चूलिकाका विस्तार मूलमें १२ यो. और ऊपर 8 यो. है । उंचाई उसकी ४०. यो. है । अत एव उसका विस्तार इच्छित २० यो. की उंचाईपर इस करणसूत्र के अनुसार इस प्रकार होगा- कटि १२, शिर ४, काय ४०; १४ }; पं x २० = 8, 8 + ४ = ८ यो । विष्कम्भसे गुणित विष्कम्भको दशसे गुणा करनेपर जो प्राप्त हो उसके वर्गमूल प्रमाण वृत्त द्वीप, सागर और पर्वतों की परिधि होती है ॥ ३३ ॥ उदाहरण - मेरुका तलविस्तार १००९० V/१११००० ११'x १० = १५१ १११००० = ११९१० से. ( कुछ अधिक ) तलविस्तार की परिधि । विष्कम्भके वर्गको दशगुणा करके उसका वर्गमूल निकालनेपर वृत्त क्षेत्रकी परिधिका प्रमाण होता है । इस परिधिको विष्कम्भके चतुर्थ भागसे गुणा करनेपर उसका क्षेत्रफळ प्राप्त होता है ॥ ३४ ॥ उदाहरण - इस करणसूत्र के अनुसार पृथिवीतलपर १०००० यो विस्तृत मेरुका क्षेत्रफल इस प्रकार होगा √१००००×१० = ३१६२३ यो. ( कुछ कम ) परिधि । ३१६२३ × १०००० = ७९०५७९०० वर्ग यो क्षेत्रफळ । ― १ उश पत्रण सुकलिय, प ब पवणत्रछुरिय. २ उप व श रम्मे. ३ उ कम्मम्मणवहलवर, रा कम्माणलक्खद. ४ श णरवरयीमेत ५ उश जो बहुवो हु कडी. ६ गाथेयं नोपलभ्यते पचप्रत्योः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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