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________________ -६.२८ चंउत्यो उदेसी [५९ तस्स बहुमजावेसे दुगुणा दुगुणा हवंति विस्थिण्णा । बहुविहंदीवसमुहा माणामणिकणयसंचण्णा । १९ गणणादाण' वहा सापरदीवाण मज्झमागम्मि । होदि हुअंदीवो तस्स दु मज्से विदेहो दु ॥ ३० मंदरमहापलिंदो विदेहमम्मम्मि होइ णिहिट्ठो । जम्माभिसेयपीढो जिगिंदयंदाण' णायम्बी ॥१॥ मोगादों बज्नमयो सहस्स वह जोयणो समुट्ठिो । णवणवदि उग्छेहो णाणामणिरपणपरिणामो ॥ ११ पायालतले गेया विक्खंभायाम तस्स मेरुस्स । दस य सहस्सा गउदि य दस चेव कला मुणेषम्वा ॥ २३ धरणीपट्टे या दस चेव सहस्स भइसालवणे | लिहरे एयसहस्सा विस्थिण्णों पंडुकवणम्मि ॥ २४ मूले मो उवरि बज्जमभो मणिमओय कणयममो। तह एयं च सहस्सा इगिसटिसहस्स भरती ॥२५ घणसमयघणविणिग्गयरविकिरणपुरंतभासुरी दियो । बहुविविहरयणमंडियवसुमहमरगे व उत्तुंगो॥२६ तियासिवसाहयसुरवरकर्यजम्मणमहिगतरणिग्धोसो। जिणमहिमजणियविक्कमसुरवणचंतरमणीमो ॥२७ ससिधवलहारसंणिभखीरोवहिउच्छलंतसलिलोहो । सुरसयसहस्ससंकुलकोलाहलरावरमणीभो ॥ २८ . ......................................." विस्तारवाले तथा नाना मणियों व सुवर्णसे व्याप्त बहुत प्रकारके द्वीप-समुद्र जानना चाहिये ॥ १८-१९ ॥ उन असंख्यात द्वीप-समुद्रोंके मध्य भागमें जम्बू द्वीप और उसके भी मध्यमें विदेह क्षेत्र है ॥ २०॥ विदेइके मध्यमें जिनेन्द्र-चन्द्रोंके जन्माभिषेका पीठ (आसन ) स्वरूा मन्दर महाचलेन्द्र (भेरु) कहा गया है ॥ २१॥ नाना मणियों एवं रत्नोंके परिणाम रूप उक्त पर्वतका वज्रमय अवगाढ (नीव) एक हजार योजन और उंचाई निन्यानौ हजार योजन प्रमाण कही गई है ॥ २२ ॥ उस मेहका विष्कम्भ व आयाम पातालतलमें दश हजार नब्बै योजन और दश कला (१००९०११) प्रमाण जानना चाहिये ।। २३ ।। उक्त मेरु पृथिवीपृष्ठपर भद्रशाल वनमें दश हजार योजन प्रमाण तथा शिखरपर पाण्डुक वनमें एक हजार योजन प्रमाण विस्तीर्ण है ॥ २४ ॥ मेरु पर्वत मूलमें एक हजार योजन प्रमाण वज्रमप, मध्यमें इकसठ हजार योजन प्रमाण मणिमय, और ऊपर अड़तीस हजार योजन प्रमाण सुवर्णमय है ॥ २५ ॥ मणि, सुवर्ण, रत्न एवं मरकत रूप. पृथिवीको धारण करनेवाला वह सुमेरु रूप नरपत वर्षाकालमें मेघोंसे निकले हुए सूर्यको किरणोंसे प्रकाशमान, दिव्य, विविध प्रकारके बहुतो रत्नोंसे मण्डित पृपिवीके मुकुटके समान उन्नत, इन्द्र सहित उत्तम देवों द्वारा की गई जन्ममहिमा (जन्मकल्याणक) के समय वादिनोंके शब्दसे संयुक्त, जिनमाहात्म्यसे उत्पन्न हुर पराक्रमसे युक्त इन्द्र के सत्यसे रमणीक, चन्द्र अथवा धवल हारके साइश क्षीरोदाधिक उछलते हुए जलसम्हसे १ .२३ गणणादीषण. शनिमिवावाण. ४ उपाओ, पामेना . ५. बस्स. ६ उशपिविण्णा. ७श मासणागेवा, प्रती 'मासुरागा' इत्येवं लिलिया नrat मासु रिमो' एवं संशोषितच पाठोऽस्ति. शतिषसिंह. १-कर. १. उशमस्सि. ११ मिया, भिरोसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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