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________________ 61 जंबूदीपणती [ ३.१२० कुंदैदु संखहिमचयणिम्मलवरहारभूसियावच्छा । मणिगण करओ हामियदिणय रकर कुंडला भरणा ॥ १२० भट्ठोत्तरसयसंखा पडिहारा मंतिणो यं दूदा य' । बहुपरिवारा धीरा उत्तमरूवा विणीदा य ॥ १२१ भवणाणि ताणे दिट्ठा दद्दमशे देति पउमगउमेसु । भट्ठोत्तराणि णेया सदाणि दिसविदिसमागेसु ॥ १२२ सब्वाणि वरधराणि य तोरणपायारसरवरादीणि । पडमिणिसंडाणि तहा अणाइणिद्दणाणि जाणाहि ॥ १२३ भवणाणि विणायच्त्र कंवणमणिरय गव मइयाणि । गलिंदणील मरगयदिणय रसखिकिरणणिवद्दाणि ॥ १२४ भवणे तेसु या पुण्क्कय सुकयकम्मजोगेण । उप्पज्जंति हु देवा देवीओ दिध्वरुवा ॥ १२५ एयं च सयसहस्सा' चालीससहस्स हैति णिद्दिट्ठा' । एवं च सयं णेया सोलस कमळाण परिसंखा || १२६ विक्खमुच्छेहादी परमाणं दुगुणद्गुणवडी दु । हिमवंतादो णेया जाव दु सिद्दी गिरिंदो य || १२७ I जंबूदुमेसुं एवं परिसंखा होति जंबुगेाणं । णवरि विसेसो जाणे चत्तारिदुमाहिया जंबू ॥ १२८ जंबूदुमाद्दिवस्सेदु चत्तारि हवंति तस्स महिसीओ। चत्तारि अंबुगेहा देवीणं होति णिडिट्ठा ॥ १२९ कुन्दपुष्प, चन्द्रमा एवं हिमसमूह के समान स्वच्छ उत्तम हारसे भूषित वक्षस्थलवाले, मणिसमूहकी किरणोंसे सूर्यकिरणों को तिरस्कृत करनेवाले कुण्डलोसे अलंकृत, बहुत परिवारवाले, धीर, उत्तम रूपसे युक्त और विनयको प्राप्त हुए ऐसे एक सौ आठ प्रतीहार, मंत्री व दूत होते हैं ॥ १२०-१२१ ॥ द्रके मध्य में दिशा-विदिशा भागोंमें पद्मों के बीच में उनके एक सौ आठ भवन निर्दिष्ट किये गये जानना चाहिये ॥ १२२ ॥ सब उत्तम घर, तोरण, प्राकार, सरोवरादिक तथा पद्मिनीखण्ड अनादि निधन हैं, ऐसा जानिये ॥ १२३ ॥ ये भवन सुवर्ण, मणि, रत्न एवं वज्रसे निर्मित और इन्द्रनील, मरकत, सूर्यकान्त व चन्द्रकान्त मणियों के समूह से संयुक्त हैं ॥ १२४ ॥ उन भवनों में पूर्वकृत पुण्य कर्म के योगसे दिव्य रूपवाले देव और देवियां उत्पन्न होती हैं ।। १२५ ।। उन कमलोकी संख्या एक लाख चालीस हजार एक सौ सोलह ( १ + ३२००० + ४०००० + ४८०००+७+४००० + १६००० + १०८ १४०११६ ) जानना चाहिये ॥ १२६ ॥ हिमवान्से लेकर निषेध पर्वत पर्यन्त कमलों के विष्क्रम्म व उत्सेधादिकमें दुगुणी दुगुणी वृद्धि जानना चाहिये ॥ १२७ ॥ इसी प्रकार जम्बू "वृक्षोंके ऊपर जम्बूगृहोंकी भी संख्या है। यहां केवल इतना विशेष जानना चाहिये कि जम्बू वृक्ष चार वृक्षोंसे अधिक हैं ॥ १२८ ॥ जो देव जम्बू वृक्षका अधिपति है उसकी चार पट्टदेवियां हैं। उन देत्रियोंके चार जम्बू वृक्ष निर्दिष्ट किये गये हैं ।॥ १२९ ॥ इस 1 १ उ हिम्मरयणिम्मल, श हिम्मरयणिमाल. २ उ प ब य पहुदा य श य पहुदा या. ३ व श ताणि. ४ उ साणि वरव्वराणि, श सयाणि वरव्वराणि ५ श वियाणव्वा. ६ उ मज्ज, श म झ. ७ प य एवं. ● वा सहसहस्सा ९ उश होति ति णिर्दिट्ठा १० उ रा जंबूदुमे ११ उ प व श जंबूदुमाविवरस. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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