SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - ३. ११९ 1 तदिओ उद्देसो [ ४३ अदिसयरूत्राण' तहा आभरणविद्धूसिदाग देवाणं । णच्चणगायणलेवणं सतहि भागेहि निहिं ॥ ११० दासीदासेहि वडा कंठादिपविविरूवभिवेद्दि । होइ तह दाससेण्ण' सत्तहि कच्छाहि संजुतं ॥ १११ पच्छिम दिसाविभागे सरवर मज्जाम्मि सररुद्देसु तद्दा' । सत्तेव व वरगेहा सत्ताणीयाण' णिद्दिट्ठा ॥ ११२ सामाणिमो सुरिंदो भाभरणविहूसिओ परमरूवो । चत्तारिसहस्साणं देवाणं अहिवई धीरो ॥ ११३ संपुण्ण बंद वयणो पलंबबाहू य सत्यसम्वंगो । नीलुप्पलणीसासो अणित्रकणियारसंकासो ॥ ११४ पच्छिमउत्तरभागे उत्तरभागे य पुष्त्रउत्तर दे। ' । तह चत्तारिसहस्सा वस्स गिद्दा होति परमेसु ॥ ११५ दिग्बामदेहधरा दिव्याभरणेहि भूसियसरीरा । मणिगणजलंतमउडा वरकुंडलमंडियागंडा ॥ ११६ सिंहासनम गया वरचामरविज्ञमाण बहुमागा । धवळादवत्तचिण्डा चदुदेवसहस्सपरिवारा ॥ ११७ सिरिदेविपादरक्खा चउरो य हवंति तेजसंपण्णा । बहुविहजोसमग्गा भोळांता परिचरंति ॥ ११८ भवणाणि ताण" हुति हु चसु विय दिसासु पडमफुले सु" । पत्तेयं पत्तेयं चदुरो चदुरो सहस्वाणि ॥ ११९ नर्तकों व गायकों की सेना सात भागोसे युक्त कही गई है ॥ ११० ॥ दासी दासों तथा वंठ वामन या अविवाहित ) आदि विविध प्रकार के स्वरूपवाले भृत्योंसे संयुक्त दासों की सेना सात कक्षाओं से युक्त होती है ॥ १११ ॥ सरोवर के बीच पश्चिम दिशा-भागमें कमलों के ऊपर सात अनीकोंके सात ही उत्तम गृह निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ ११२ ॥ आभरणोंसे विभूषित, धीर और उत्तम रूपवाला सामानिक सुरेन्द्र चार हजार देवोंका अधिपति होता है ॥ ११३ ॥ उक्कं सुरेन्द्र पूर्ण चन्द्रके समान मुखवाला, लम्बे बाहुओंसे सहित, स्वस्थ सब अत्रयवें से सुशोभित, नीलोत्पल के समान निश्वाससे युक्त और नवीन कनेरपुष्पके सदृश होता है ॥ ११४ ॥ पश्चिम-उत्तर भाग (वायव्य), उत्तरभाग तथा पूर्व-उत्तर भाग ( ईशान ) में पद्मों के ऊपर उसके चार हजार गृह हैं ॥११५|| दिव्य व निर्मल देहके धारक, दिग्प आभारणोंसे भूषित शरीरवाले, मणिसमूह से चमकते हुए मुकुटसे शोभायमान, उत्तम कुण्डलें से मण्डित कपोलोसे संयुक्त, सिंहासन के मध्य में स्थित, उत्तम चामरोंसे वीज्यमान, बहुमानी, धवल आतपत्र रूप चिह्नसे सहित, चार हजार परिवार देवोंसे संयुक्त, श्री देवीके चरणोंकी रक्षा करनेवाले, तेजस्वी, तथा बहुत प्रकारके योद्धाओं से सहित वे देव श्री देवी की सेवा करते हुए परिचर्या करते हैं ॥। ११६-१८॥ उनमें से प्रत्येकके चारों दिशाओं में कमलपुष्पों के ऊपर चार चार हजार भवन हैं ॥ ११९ ॥ १ अ श अदियसत्वाण. १ अतोऽमे बत्रतौ ' रसिकेहिं · निरिठ्ठा ॥ एवंविधः पाठः । ३ श होह सवग्रहसेणं. ४ बप्रतावतोध्ये इति पाठः । ५ श सरव्हेसलहेसचा ६ उ प ब श सत्ताणीयाणि पच्छिम उत्तरभागे म पुम्ब उत्तरदो. ९ प ब तस्स हि गिद्दा होंति नियमेसु. १२ उपमकुळे, श पउपबुलेत. Jain Education International होइइदाहा सत्तेव पवरंगेहा सवाणायनि ' सरवदेषु सहा सत्ताणीयाणि णिरिट्ठा ॥ " ७ उ प ब श वणियारि. ८ उश १० ब जोय. ११ उप व शतानि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy