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जंबूदीवपण्णत्ती
[४. ११५
पंचधणुस्सयतुंगा भायामाते इति पंचसया। विक्खंभेण य या भरढादिज्जा धणुसदाणि || ११५ पुस्वामिमुद्दा सम्वा सिदादवसा सचामरागोवा | मझेर ति दिवा सिंहासण जिणवरिंदाण ॥ सोहम्मीसाणाणं इंदाण होति दासु पाससु । दाहिणवामदिसाए जहाकमेणं समुट्ठिा ।। १४७ ईसाणदिसाभागे भरहजिणिदाण' दिग्बदेहाणं | पंदुकसिलावले' तह जम्मणमहिमा समुट्ठिा ॥१४८ भवरविदेहाण तहा वस्पंडुयकंबलम्मि धूमदिसे । वररत्तकंबलम्मि दु णेरदि एरावदाणं तु ॥ १४९ वाउदिसे रत्तसिला पुग्वविदेहाण जिणवरिदाणं । जम्मणमहिमा मेरुप्पदाहिणेण तु गंतूर्ण ॥१५. ससुरासुरदेवगणा भागंतूर्ण महाविभूदीए । सिंहासणेसु दिव्या जम्मणमहिम पकुम्वति ॥ १५१ संखवरपरहमणहरसिंहणिणाएहि घंटसद्देहि । भवणवईवाणतिरबोइसकप्पाहिवा देवा ॥ १५२ णाळण जिणुप्पा हरिसीह महाविभूदिजुत्तहि । आगच्छति सुरवरा छायंता णहयझ सयलं ॥ १५३ इंदो वि महासत्तो तीहि य परिसाहि सत्तअणियाहि । गयवरखंधास्तो एइ महाइसिंपण्णी ॥ १५४ रविससिजदु ति णामा परिसाण महदरा समुहिट्ठा । भभंतरमझिमवाहिराण कमसो मुणयन्वा ।। १५५
और अढाई सौ धनुष प्रमाण विकम्मसे सहित जानना चाहिये ॥ १४५॥ सब सिंहासन पूर्वाभिमुख, धवल आतपत्रसे संयुक्त और चामरोके आटोपसे सहित हैं। इनमें मध्यके सिंहासन जिनेन्द्रोंके होते हैं ॥१४६ ॥ उनके दोनों पार्श्वभागोंमें यथाक्रमसे दक्षिण
और वाम (उत्तर ) दिशामें सौधर्म और ईशान इन्द्र के सिंहासन कहे गये हैं ॥ १४७॥ ईशान दिशाभागमें स्थित पाण्डुकशिलातलपर दिव्य देहके धारक भरतक्षेत्र सम्बन्धी जिनेन्द्रोंके जन्मकी महिमा कही गई है ॥ १४८॥ अग्नि दिशामें स्थित उत्तम पाण्डुकम्बल शिलापर अपर विदेह सम्बन्धी जिनेन्द्रोंकी तथा नैऋत्य दिशामें स्थित उत्तम रक्तकम्बल शिलापर ऐरावतक्षेत्र सम्बन्धी जिनेन्द्रोंके जन्मकी महिमा कही गई है ॥ १४९॥ वायुदिशामें स्थित रक्तशिलापर पूर्व विदेह सम्बन्धी मिनेन्द्रोंके जन्मकी महिमा जानना चाहिये । मुर और असुरोंसे सहित देवगण मेरुकी प्रदक्षिणा करते हुए महा विभूतिके साथ पाकर सिंहासनोंपर दिव्य जन्ममहिमाको करते हैं ॥ १५०-१५१ ॥ भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पाधिपति देव क्रमशः शंख, उत्तम पटह, मनोहर सिंहनाद
और घंटाके शब्दसे जिन भगवान्की उत्पत्तिको जानकर सहर्ष महा विभूतिसे युक्त होकर समस्त आकाशतलको आच्छादित करते हुये आते हैं ॥१५२-१५३॥ महा बलवान् इन्द्र भी तीन परिषद और सात अनीकोंसे युक्त हो उत्तम हाथ के कन्धेपर चढ़कर महा ऋद्धिके साथ आता है ॥ १५ ॥ अभ्यन्तर, मध्यम और बाह्य परिषद्के कपसे रवि चन्द्र और जतु नामक महत्तर कहे गये जानना चाहिये । १५५ ॥ अभ्यन्तर परिषद्
उसाण, पब इसाण, श इसोण. २पब जिणंदाण. ३ पब तहे. ४ उश 'दिसो. ५उ दिग्वे, पब दिल्बो, श दिव्वा. ६श भावणाहर. उश तिणि. ८ पब रिधि. ९उश ति णा परिसाणं. १० उ महधरा, श महुधरा..
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