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चउत्यो उद्देसो
कडिसिरविसुद्धसेसं इच्छगुणं तह य चेव काऊणं । विक्खंभहाणि-वड्डी भाणिज्जो करणगाहाहि ॥ १५ तुंगो चूलियसिहरोन विलग्गा उडुविमाणणामस्स। तलमागे' णायचा बालपमाणेण णिविटा॥१३ उत्तरकुरुमणुयाणंकोमलसुकुमालेणिद्धवण्णण । सिहरितलमज्झमागे केसेण दु अंतरं होई ॥१३७ पंडुकसिला विणेया कणयमया विविहरयणसंछण्णा । पुवुत्तरम्मि भागे ईदाउहसंणिहा होइ ॥ १३८ दक्खिणपुग्वादिसाए पंडुकवरकंबला सिला होइ । कुंदिंदुसंखवण्णा अट्ठमिससिसणिभा रम्मा ॥ १३९ दक्षिणपच्छिमभागे['जासवणणिभा दु दधणुसरिसाणामेण रत्तकंबलमहासिला होहणायम्बा ॥१४. उत्तरपच्छिमभागे] सुरिंदधणुसंणिभा परमरम्मा | रत्तसिला णायग्बा तवणिज्जणिमा समुट्ठिा ॥१४॥ पंचसया मायामा विस्थार तदद्ध होति णिहिट्ठा । चत्तारि जोयणाई उत्तुंगामो वरसिलामो ॥१४२ महउज्जलरूवामी वरसोरणमंडियाओ दिवाओ। वरवेदियजुत्तामो मणिरयणफुरंतकिरणाभो ॥१३ एगेगसिलापसिंहासण तिणि तिगिण णिहिट्ठा । मणिकंचणपरिणामा जिम्मलससिकतकिरणोहा ॥ १४५
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सब पर्वत। (:) भवनों और उत्तम गृहके इच्छित विस्तारको लाना चाहिये (देखिये पाछे गाथा ३२) ॥ १३४-३५ ॥ उन्नत चूलिकाशिखर बालके प्रमाणसे ऋतु नामक विमानके तलभागसे नहीं लगा है, अर्थात् मेरुचूलिकाके ऊपर बाल मात्रके अन्तरसे ऋतु विमान निरालम्ब स्थित है, ऐसा निर्दिष्ट जानना चाहिये ॥१३६ ॥ मेरुके शिखर और ऋतु विमानतलके मध्य भागमें उत्तरकुरुमें उत्पन्न मनुष्योंके कोमल, सुकुमार एवं स्निग्ध वर्णवाले एक बाल मात्रका अन्तर है ॥ १३७ ॥ पूर्वोत्तर भाग (ईशान ) में इन्द्रायुध (इन्द्रधनुष ) के सदृश और विविध रत्नास व्याप्त सुवर्णमय पाण्डुकशिला जानना चाहिये ॥ १३८ । दक्षिण-पूर्वदिशा ( आग्नेय) में कुंदपुष्प, चन्द्रमा एवं शंखके समान वर्णवाली अष्टमीके चन्द्रके सदृश मणीय उत्तम पाण्डुकंबला नामक शिला है ॥ १३९ ॥ दक्षिण-पश्चिम भाग (नैऋत्य ) में जपाकुसुम व इन्द्रधनुषके सदृश रक्तकंबला नामक महा शिला जाननी चाहिये ।।१४०॥ उत्तर-पश्चिम (वायव्य) भागमें इन्द्रधनुष के सदृश, अतिशय रमणीय और तपनीयके समान प्रभावाली रक्तशिला कही गई है ॥१४१॥ इन उत्तम शिलाओंकी लम्बाई पांच सौ योजन, विस्तार इससे आधा अर्थात् अढ़ाई सौ योजन और उंचाई चार योजन प्रमाण कही गई है ॥ १४२॥ उक्त शिलायें अतिशय उज्ज्वल रूपवाली, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, दिव्य, श्रेष्ठ वेदीसे संयुक्त और मणि एवं रत्नोंकी प्रकाशमान किरणोंसे सहित हैं ॥१४३ ॥ एक एक शिलापट्टपर मणि व सुवर्णके परिणाम रूप तथा निर्मल चन्द्रकान्त मणियोंके किरणसमूहसे संयुक्त तीन तीन सिंहासन कहे गये हैं ॥१५४ ॥ ये सिंहासन पांच सौ धनुष ऊंचे, पांच सौ धनुष आयत,
१उलग्रह, श लिग्रह. २ प य उडभागो. ३ श उत्तरकुणुयाण. ४ उश कुसुमाल. ५उ गिधवणेण, श गिधवलेण. ६ उश मागो. उश°उहसणिहाइ, ब उहसणिहा होय. ८प-बप्रत्यास्त्रुटतोऽयं कोष्ठकस्थ: पाठः।उ'मागे जासवणनिमा दुइंदुघणु, शमागे सुरिंदधशु. १.उतबणिज्जुणिमा, पब तवणिज्जमा. शतवणिशणिमा. ११ उश पदे, पब यहे.
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