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________________ तिकोषपण्णतिका गणित गा. ५, ३३ - इस गाथामें अंतिम आठ द्वीप-समुद्रों के विस्तार मी गुणोचर भेटि में दिये गये हैं। अन्तिम स्वयंभूवर समुद्र का विस्तार (जगभ्रेणी:२८)+ ७५००० योजन दिया गया है। इस समुद्र के पश्चात् १ राजु चौड़े तथा १००००० योजन बाहल्यवाले मध्यलोक तल पर पूर्व पश्चिम में - "{१ राजु -[ ( राजु +७५००० यो०) + (६ राजु + ३७५०० यो०) + गजु+ १८७५० यो०)+.......... ५०... योजन]}" बगह बचती है। यद्यपि १ राजु में से एक अनन्त भेदि भी घटाई बावे तब भी यह लम्बाई राजु से कुछ कम योजन बच रहती है। यह स्थापना सिद्ध करती है कि उन गणितज्ञों को इस गुणोत्तर, असंख्यात पदोंवाली भेदियों के योग की सीमा का शान भी था। गा.५,३४- यदि २n समुद्र का विस्तार D. मान लिया बाय और २n+वें द्वीप का 'वस्तार Daमान लिया बाय तब निम्न लिखित सूत्रों द्वारा परिभाषा प्रदर्शित की जा सकेगी। De= 3Dani.x२-D,x३= उक्त द्वीप की आदि सूची DD Dan+ ४३ - D,४३= , मध्यम सूची D = Dar, ४४-D,x३= , बाह्य सूची यहाँ D, अम्बूद्वीप का विष्कम्भ है। इस सूत्र का परिवर्तित रूप द्वीपों के लिये मी उपयोग में लाया जा सकता है। D,V...rn द्वीप या 1 गा. ५, ३५- n द्वीप या समुद्र की परिधि = "YoxBH ____D, समुद्र की सूची इस सत्र में कोई विशेषता नहीं है। गा.५,३६- यहाँ इस सिद्धान्त की पुनरावृत्तिो . कि वचों के व्यासों के वर्गों की निष्पति का मान उतना ही होता है जितना कि वृत्तों के क्षेत्रफलों की निष्पति का। यदि n द्वीप या समुद्र की बाह्य सूची Dnb तथा अभ्यंतर सूची (अथवा आदि सूची) Dna परूपित की जावे तो (Dnb)२ - (Dna)२ . 2) = उक्त द्वीप या समुद्र के क्षेत्र में समा जानेवाले बम्बूद्वीप क्षेत्रों (DAR की संख्या होती है। यहाँ D, जम्बूद्वीप का विष्कम्म है तथा De=DDrubt, चूँकि किसी भी द्वीप या समुद्र की बाह्य सूची, अनुगामी समुद्र या दीप की आदि या आभ्यंतर सूची होती है। गा. ५,२४२- स्थूल क्षेत्रफल निकालने के लिये, ग्रंथकार ने 1 कामान स्थूल रूप से ३ ले लिया है और निम्न लिखित नवीन सूत्र दिया है वे द्वीप या समुद्र का क्षेत्रफल = [Dn-D.K)HD.} यहाँ [Dn-D.K३)२ को भायाम कहा गया है। Dn; n द्वीप या समुद्र का विकाम है। इस सूत्र का उद्गम निकालने योग्य है। इस सूत्रको दूसरी तरह भी लिख सकते हैं। D.-२(-१) D, लिखने पर , Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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