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________________ २०४ ] जंबूदीवपण्णत्ती [ ११.१७८ एक्कं च तिणि सत्त य दस सत्तरसं तहेने बावीसा । तेतीसउदधिआऊ पुढवीणं होति उक्कस्तं ॥ १७८ जंबूदीवस्स तहा धादइडस्स पोक्खरद्धस्स । खेत्तेसु समुद्दिट्ठा सत्तरिसद भेदभिण्णे ॥ १७९ जे उप्पण्णा तिरिया मणुया वा घोरपावसंजुत्ता । मरिऊग पुणो गया णरयं गच्छति ते जीवा ॥ १८० लवणे कालसमुद्दे सयंभुरमणोदधिम्मि जे मच्छा । पंचेंदिया दु तिरिया सयंभुरमणस्स दीवस्स ॥ १८१ ते कालगदा संत णरयं गच्छति णिचिदषणकम्मा । सम्मत्तरयणरहिया मिच्छत्तकलंकिदो जीवा ॥ १८२ पणवीर्सकोडिकोडीउद्धारमाणविउलपल्लाणं । जावदिया खलु रोमा तावदिया होति दीवुदधी ।। १८३ चारसको डाकोडी पण्णासं लक्खकोडि पहाणं । जेत्तियमेत्ता रोमा दीवा पुण तेत्तिया होति ॥ १८४ उदधी वि होति तेत्तिय गिद्दट्ठा सव्वभावदरिसीहि । वणवेदिएहि जुत्ता वरतोरणमंडिया दिव्वा ।। १८५ जंबूधादइपोक्खरसयंभुरमणाभिधाण जे दीवा । ते वज्जित्ता चदुरो अवसेस असंखदीवेसु ॥ १८६ जे उप्पण्णा तिरिया पंचिंदिय सण्णिणो य पज्जत्ता । पल्लाउगा महप्पा बेदंडसहस्तउत्तुंगा ॥ १८७ पृथिवियोंमें स्थित नारकियोंकी क्रमशः एक, तीन, सात, दश, सत्तरह, बाईस तथा तेतीस सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट आयु है ॥ १७८ ॥ जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड तथा पुष्करार्द्ध द्वीपके एक सौ सत्तर भेदोंसे भिन्न क्षेत्रों ( जम्बूद्वीपका १ भरत, १ ऐरावत व ३२ विदेह; धातकीखण्ड के २ भरत, २ ऐरावत व ६४ विदेह; तथा पुष्करार्द्धके भी २ भरत, २ ऐरावत और ६४ विदेह ) में जो मनुष्य अथवा तिर्यंच उत्पन्न होते हैं वे जीव घोर पापसे संयुक्त होते हुए मरकर नरक में जाते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ १७९-१८० ॥ लवणोद, कालोद और स्वयंभुरमण समुद्र में जो मत्स्य हैं वे तथा स्वयंभुरमण द्वीपके जो पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीव हैं वे दृढ़ कर्मोंसे व्याप्त होकर सम्यक्त्व-रत्नसे रहित और मिथ्यात्व से कलंकित होते हुए मरकर नरकको जाते हैं ।। १८१-१८२ ॥ पच्चीस कोड़ाकोड़ि उद्धारपल्योंके जितने रोम होते हैं उतने द्वीप समुद्र हैं ॥ १८३ ॥ बारह कोड़ाकोड़ि पचास लाख करोड़ ( साढ़े बारह कोड़ा कोड़ि ) उद्धारपल्योंके जितने रोम होते हैं उतने द्वीप होते हैं तथा उतने ही समुद्र होते हैं, ऐसा सर्वभावदर्शियों ( सर्वज्ञों ) द्वारा निर्दिष्ट किया गया है । ये दिव्य द्वीप समुद्र वन - वेदियों से युक्त और उत्तम तोरणोंसे मण्डित हैं ॥ १८४ - १८५ ॥ जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड, पुष्करार्द्ध और स्वयंभुरमण नामक जो चार द्वीप हैं उनको छोड़कर शेष असंख्यात द्वीपोंमें उत्पन्न हुए जो पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्त तिर्यच जीव पल्य प्रमाण आयुसे युक्त, महात्मा, दो हजार धनुष ऊंचे, सुकुमार कोमल १ उश तथैव. २ श तेतीसओसधि आओ. ३ उ सत्तरिदस भदभिन्नेसु; ब सत्तरिसद्द भेष्णेसु, श रिदसभेदभिन्नेसु. ४ उ ब श सत्ता. ५ क कलंकिया. ६ उ पुणुवीस, ब पणुवीस, श पुणुवीसं. ७ उ दिउदधी, ब दीबुदधी, श दिउदद्धी. ८ उ कोडिपुत्राणं, श फोपुव्बाणं, ९ श तेत्तियगिद्दिसव्वभावदरिसीहि होति. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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