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-५. ५१ ]
पंचमो उद्देस
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तार्ण सभाघराणं पुरो थूहाणि होति रम्माणि । जिणवरपरिमण्णा णाणामणिरयणपरिणामा || १ श्यणमयविउलपीढं ठतुंगं जोयणाणि' 'चाकीसं । थूहस्से दु चडवीसाकं चणवेदीसमाजु ॥ १२ पीढस्सुवरि' विचितं तिमेहलापैरिउयं महाथूहूं" । आयामं विक्खंभं उच्छेदं होइ चउसट्ठी ॥ ४६ थूहादो पुग्वदिसं' तूणं होइ कणयमयपीठं । विक्खंभायामेण य सहस्स तह जोयणा णेया ॥ ३४ बारसवेदिसमग्गं वरतोरणमंडियं परमरम्मं । मणिगणजलंतनिवहं बहुतरुगणसंकुलं दिग्वं ॥ ४५ तस्स दु पीढस्सुवरि सोलस तह जोयणा समुत्तुंगा । चेदियँक्सा णेया णाणामणिरयणपरिणामा ॥ ४६
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'च सयलहस्तं चालीसा वह सहस्स परिसंखा । एगसयं वीसहिया सिद्धत्थतरूण परिसंखा ॥ ४७ उद्धं गंतूण पुणो धरणीदो जोयणाणि चत्तारि । चदुसु वि दिसाविभागे' साहामो होंति णिष्ट्ठिा ॥ ४८ बारहञोपणदीहा सिद्धत्ययणामधेयेरुक्खाणं । विक्खंभेण यर जोयण निद्दिट्ठा सम्बदरिलीहिं ॥ ४९ अद्वेव जोयणेसु य रुंदेसु महादुमेसु णिद्दिट्ठा | जिनहुंदाणं पडिमा भकिट्टिमा सासवसभावा ॥ ५० पलिर्यकारणबद्धा रयणमया पाडिदेरसंजुत्ता । सव्वाणं रुक्खाणं चदुसु वि भागेसु ते हाँति ॥ ५१
युक्त नाना मणि एवं रत्नोंके परिणाम रूप रमणीय स्तूप होते हैं ॥ ४१ ॥ स्तूपका तथा चालीस योजन ऊंचा स्तूप होता है । इसका आयाम, स्तूपसे आगे पूर्व दिशामें जाकर
रत्नमय विशाल पीठ चौबीस सुवर्णमय वेदियोंते संयुक्त होता है || ४२ ॥ पीठके ऊपर तीन मेखलाओंसे वेष्टित मह विष्कम्भ और उत्सेध चौंसठ योजन प्रमाण होता है ॥ ४३ ॥ एक हजार योजन प्रमाण विष्कम्भ व आयामसे सहित सुवर्णमय पीठ जानना चाहिये ॥ ४४ ॥ यह दिव्य पीठ बारह वेदियों से परिपूर्ण, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, अतिशय रमणीय, देदीप्यमान मणिगणोंके समूहोंसे युक्त और बहुतसे तरुगण से व्याप्त होता है ॥ ४५ ॥ उस पीठके ऊपर स्थित सोलह योजन ऊंचे नाना मणियों एवं रत्नोंके परिणाम रूप चैत्य वृक्ष जानना चाहिये ॥ ४६ ॥ सिद्धार्थ वृक्षोंकी संख्या एक लाख चालीस हजार एक सौ बीस है ॥ ४७ ॥ पृथिवी से चार योजन ऊपर जाकर चारों ही दिशाविभागों में उनकी शाखायें निर्दिष्ट की गई हैं ॥ ४८ ॥ सर्वदर्शियों द्वारा सिद्धार्थ नामक वृक्षों की [ शाखायें ] बारह योजन दीर्घ और एक योजन विष्कम्भ से युक्त निर्दिष्ट की गई हैं ।। ४९ ॥ आठ योजन रुंदवाले उन महा दुमपर अकृत्रिम और शाश्वतिक स्वभाववाली जिनेन्द्रों की प्रतिमायें निर्दिष्ट की गई हैं ॥ ५० ॥ पत्यकासन से विराजमान और प्रातिहायोंसे संयुक्त वे रत्नमय जिनप्रतिमायें सत्र वृक्षोंके चारों ही भागों में होती हैं ॥ ५१ ॥ उस वृक्षसमूह से पुनः पूर्व दिशा भागमें जाकर
१ प जोयणेणि, व जोयणेण २ उश थूहस. ३ उश पांडेनुवरि ४ प व चिरं तिमेहला. ५ उश महाथू ६ उ पुव्वदिते, प ब पुन्वदिसो. ७ उ श वेदीय, प ब वेदिय. ८ उपश एवं. ९ उ प वा दिसामिमागे १० उ श सहाओ. ११ प व सिद्धथं नामचेय. १२ व विक्संमेयण.
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