SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९१] जंबूदीवपण्णता [५, ५२सो दुमसंडादो गंदण पुणो वि पुम्वदिसभागे । भयाणिवहाणं पीठं बारसवेदीहि संजुक्तं ॥ ५२ तम्मि परपीडसिहरे सोळस तह जोयणा समुत्तुंगा । कोसेर्ग होति रुंदा वेरुलियमया महाखंभा ॥ ५३ संमेसु होति दिन्वा महाधया विविवरणसंजुत्तौ । छत्तत्तयवरसिहरा भणोवमा रूवसंपण्णा' ॥ ५४ धयणिवहाणं पुरदो वाधीमो होति सलिलपुण्णाभो । सयजोयणदाहाभी पण्णासाभो य रुंदाभो ॥ ५५ दसजायणउंडामो' कंचणमणिवेदिएहि जुत्तायो। मणितोरणणिवहामो कमलुप्पलकुसुमण्णाभो ॥ ५॥ एवं पुन्वदिसाए जिणभवर्ण मंदरस्स णिहिट् । भवसेसाण दिसाणं एमेव कमो मुणेयम्बो ॥ ५७ ततो दहादु परदों पुन्वुत्तरदक्षिणेसु भागेसु । पासादा णायम्बा देवाण कोडणा' होति ॥ ५८ कणयमया पासादा पण्णासा जोयणा समुसुंगा । विक्खंभायामेण य पणवीसा होति णिहिट्ठः ॥ ५९ कणयमया पासादा वेरुलियमया य मरगयमया य | ससिकंतसूरकताकोयणपुस्सरागमया ॥६. बरवेदिएहिं जुत्ता कंचणमणिरयणजालपरियरियं । अक्खइमणाइणिहणा को सका वणिउं पयलं ||" .......................... । बारह वैदियोंसे संयुक्त ध्वजासमूहोंका पीठ होता है ॥५२॥ उस उत्तम पाठके शिखरपर सोलह योजन ऊंचे और एक कोश विस्तारवाले वैडूर्यमणिमय विशाल खम्भ होते हैं ॥५३॥ खम्भापर विविध घोंसे संयुक्त, शिखरपर उत्तम तीन छत्रास सुशोभित और अनुपम रूपसे सम्पन्न दिव्य महाध्वजायें होती हैं ॥५५॥ ध्वजासमूहोंके आगे सौ योजन दीर्घ, पचास योजन विस्तृत, दश योजन गहरी, सुवर्ण एवं मणिमय वेदिकाओंसे युक्त, मणिमय तोरणसमूहसे संयुक्त, कमल व उत्पल कुसुमसे व्याप्त और जलसे परिपूर्ण कापियां होती हैं ॥५५-५६ ॥ इस प्रकार मन्दर पर्वतकी पूर्व दिशा स्थित जिनभवनका स्वरूप निर्दिष्ट किया है। शेष दिशाओंके जिनभवनोंका भी यही क्रम जानना चाहिये ॥ ५७॥ उस द्रहके आगे पूर्व, उत्तर और दक्षिण भागोंमें देवोंके कोडाप्रासाद हैं ॥५८॥ ये सुवर्णमय प्रासाद पचास योजन ऊंचे और पञ्चीस पोजन प्रमाण विष्कम्भ व आयामसे सहित निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ ५९ ॥ उक्त प्रासाद सुवर्ण, वैडूर्यमणि, मरकतमणि चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, कर्केतन एवं पुखराज मणियोंसे निर्मित, उत्तम वेदिकाओंसे युक्त, सुवर्ण, मणि एवं रत्नोंके समूहसे व्याप्त, अक्षयी व अनादि-निधन हैं। उनका सम्पूर्ण वर्णन करनेके निये कौन समर्थ है ! ॥६०-६१ ।। उनसे भागे फिर भी पूर्व दिशामें जाकर कोसेव. १७ विविहवणसंहुचा, हा विविहसंजुत्त. पद संपुण्णा. ४ उपाण्णसाओ य बाओ, प.ष पण्णाउ य संदाओ, श पाण्णासाओ य रंदावो. ५ उ श उडाओ, पप उदाओ. ६ विमोहि, पादिजोएहि. प.पुरदो. ८पय कोगणा, शकोडणा. ९पब सराय. १०श अणाइणिई, पएमभापनिणा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy