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________________ ८] जंबूदीवपण्णत्ती [१. ७०वरणइतडेसु गिरिसु य उज्जाणवणेसु दिठवभवणेसुं । सेंवलिजंधुदुमेसु य पउमिणिसंडेसु सम्वेसुं ॥ ७० दिसिगयवरेसु भट्ठसु वक्खारणगेर्से णाहियणगेसुं । कंचणणगेसु रम्मा वरमंदरपब्वदे तुंगे ॥ ७॥ गंगाकूडेसु तहा वेदवणगेसु रिसभसेलेसुं। जलवाहिणिकुंडेसु य विदेहवसाइखेत्तसुं ॥ ७२ गोउरदारेसु तहा मणिमयवरतोरणेसु रम्मसु । णिम्मलवरदेहधरा जिणपडिमामो मसामि ॥ ७३ अण्णाणतिमिरदलणो मुणिगणधरकुमुयसंडबोहयरो। वरपटमणदिमहिमो जिणवरचंदो दिसउ बोहिं॥७१ ॥ इय जंबूदीवपण्णत्तिसंगहे उवग्घायपस्थामो णाम पढमउद्देसी समतो ॥१॥ उद्यान-वनोंमें, दिव्य भवनोंमें, शाल्मलिवृक्ष, जम्बूवृक्ष, सब पद्मिनीषण्ड, श्रेष्ठ दिग्गज, आठ वक्षार नग, नाभिनग, कंचननग, उन्नत एवं श्रेष्ठ मन्दर पर्वत, गंगाकूट, वैताड्डयनग, ऋषभशैल, नदीकुण्ड, विदेहवर्षदि क्षेत्र, गोपुरद्वार और रम्य महा मणिमय उत्तम तोरण, इन स्थाने में स्थित निर्मल एवं उत्तम देहको धारण करनेवाली रमणीय जिनप्रतिमाओंको नमस्कार करता हूं ॥ ७०-७३ ॥ अज्ञानान्धकारको नष्ट करनेवाला, मुनि एवं गणधर रूपी कुमुदसमूहका विकासक और पद्मनन्दिसे पूजित जिनवररूपी चन्द्र बोधिको प्रदान करे ॥ ७४ ॥ ॥ इस प्रकार जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसंग्रहमें उपोद्घातप्रस्ताव नामक प्रथम उद्देश समाप्त हुआ॥१॥ १उश वरणयतडेसु, ब वरणतडेसु. २पब णमेसु. ३ उश जलचाहिणि.४ उश दलणे. ५ उश. "पस्पत्तिसंगहे उवम्ब्वायपरथावो णाम पटम, पब पक्षणत्तिसंगहे उउवाघाययऊणपढम. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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