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________________ [ बिदिओ उद्देसो ] उसभजिर्णिवं पणमिय दसद्धसयचावदीहरं जाई । जंबूदीवस्स तहा खेत्तविभागं पवक्खामि ॥ १ इद होइ भरहखेत्तो तत्तो हेमव्वदो' य हरिवंसो । तह य विदेहो रम्मग हेरण्णवदो य भइरवदो ॥ २ कप्पतरुधवलछत्ता उवचणससिधवलचामर डोवा | बहुकुंडरयणकंठाँ वण कुंडलमंडियांगंडा ॥ ३ वेइकडिसुत्तसोदा णाणापव्वयफुरंतवरमउडा | वरणइजलच्छदारों खेत्तणरिंदा विरायंति ॥ ४ पुष्वावरेण दीहा सत्त विखेत्ता विणासपरिक्षीणा | कुलपब्वयकयसीमा वित्थिष्णा दक्खिणुत्तरदो ॥ ५ एक्कखंडो भरहो दुगुणो हिमवंतवित्थडो दिट्ठो । दुगुणदुगुणा दु सब्वे सत्त विभागा मुणेयब्वा ॥ ६ जाव दु विदेहवसो पग्वदखेतान होइ परिवडी । तत्तो भद्धद्धखभो जात्र दु एरावदो वंसो ॥ ७ कुलगिरिखेताणि तद्दा तेरस भागा हवंति णायग्वा । एयट्ठकए सव्वे णउदिसँय होदि पिंडेण ॥ ८ उदिसएण विभक्त जोयणलक्खं पुणेो वि इच्छगुणं । विक्खभं गायन्न खेत्तादिणं तु जं रुद्धं ॥ ९ दसके आधे अर्थात् पांच सौ धनुष लंबे स्वामी ऋषभ जिनेन्द्रको नमस्कार करके जम्बूद्वीप के क्षेत्रविभागको कहता हूं ॥ १ ॥ यहां जम्बूद्वीपमें भरतक्षेत्र, हैमवत, हरिवर्ष विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत, ये सात क्षेत्र हैं ॥ २ ॥ कल्पवृक्षरूपी धवल छत्रोंसे सहित, चन्द्रमा के समान धवल उपवनरूपी चामरोंके विस्तारसे संयुक्त, बहुत कुण्डरूपी रत्नमय कण्ठाभरणों से सुशोभित, वनरूपी कुण्डलोंसे अलंकृत कपोलोंवाले, वेदीरूपी कटिसूत्रों सेशोभायमान, नाना पर्वतरूपी प्रकाशमान उत्तम मुकुटोंसे युक्त, और उत्तम नदीजलरूपी निर्मल द्वारोंसे विभूषित, ऐसे क्षेत्ररूपी राजा विराजमान हैं ॥ ३-४ ॥ पूर्व-पश्चिम लंबे, विनाशसे रहित और कुलपर्वतों से की गयी सीमासे संयुक्त ये सातों क्षेत्र दक्षिण-उत्तर में विस्तृत हैं ॥ ५ ॥ [ जम्बू द्वीपके एक सौ मब्बै भागोंमें ] एक खण्ड ( भाग ) भरत क्षेत्र है । उससे दुगुणा विस्तृत हिमवान् पर्वत बतलाया गया है। इस प्रकार विदेह क्षेत्र तक चार क्षेत्र व तीन कुलपर्वत, ये सात विभाग उत्तरोत्तर दूने जानना चाहिये । विदेह क्षेत्र तक पर्वत और क्षेत्रों के विस्तार में उत्तरोत्तर वृद्धि तथा उससे आगे ऐरावत क्षेत्र तक उनके विस्तारमै उत्तरोत्तर आधी आधी हानि होती गई है ।। ६-७ ॥ छह कुलपर्वत तथा सात क्षेत्र, ये जम्बूद्वीपके तेरह भाग जानना चाहिये । इन सबको इकट्ठा करनेपर पिण्ड रूपसे एक सौ नब्बे भाग होते हैं ॥ ८ ॥ एक लाख योजनमें एक सौ नब्बैका भाग देकर पुनः इच्छा से गुणा करनेपर जो प्राप्त हो उतना क्षेत्रादिकों का विष्कम्भ जानना चाहिये ॥ ९ ॥ विशेषार्थ - चूंकि विदेह पर्यन्त चार क्षेत्र और तीन कुलपर्वत, ये सात विभाग १ उ खेतो तो हेमपव्वदो, श 'खेतो हेयमव्वदो. २ श रमगो, ब रमग. ३ व कुंदरयकंवा, प कुंदरयय कंठा. ४ प ब बेहक्कडि. ५ उ वरणइजलंत होरा, प व वरणइजलंतद्वारा, श चरणइजलंत होए. ६ प ब णवदि. जं. दी. २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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