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________________ १५.] जंबूदीवपण्णसी [८, १६५ भवरेण तवी गंतुं रमणिज्जो णामदो ति विक्खादो' । विजभो होदि समिदो बहुगामसमाउलो सम्मो ॥ १६५ छक्खडेहि विभत्तो मज्जभणज्जेहि भेदसंजुत्तो। गंगासिंधूहि तहा वेदवणगेण कयसीमो ॥१॥ देसम्मि तम्मि णेया होइ सुहा णामदो त्ति वरणयरी । वणवेदिएहिं जुत्ता मणितोरणमंदिया दिग्वा ॥ १६७ कंचणपासादजुदा जिणभवर्गविहूसिया मणभिरामा । उबवणकाणणसहिया वावीपोक्खरणिकयसोहा ॥१६८ भवरेण वदो गंतुं भादस [ज णामदो णगो होइ । गिद्धतकणयवण्णो मणिरयणविहूसिभो रम्मो ॥ १६९ चत्तारिजोयणसदा उम्बिद्धो णिसधपस्वदसमी"। सीदाणदिस्स तीरे पंचसया जोपणुतुंगार ॥ १७० सीदासमीवदेसे सयं च पणुवीसजोयणवगाढो । जोयणसयमवगाटो' णिसहसमीवे समुट्ठिो ॥१॥ वणवेदिएहि जुत्तो वरतोरणमंडिओ मणभिरामो । पंचव जोषणसया विस्थिण्णो होइ वरसेलो ॥ १७२ बाणउदा पंचसया बे चेव कला हवे समहिरेवा । छइससहस्सजीयण आयाम तस्स सेलस्स ॥ १०३ पोक्वरणिवाविपउरो" णाणापासादसंकुलो रम्मो । तण्णामदेवसहिमो जिणभवणविहूसिमो रम्मो ॥ १७४ -............... करती है ॥ १६४ ॥ उसके उत्तरमें जाकर 'रमणीय ' नामसे विख्यात समृद्ध विजय है । यह विजय बहुत ग्रामोंसे वेष्टित, रम्य, छह खण्डोंसे विभक्त, आर्य-अनार्योंके द्वारा भेदसे संयुक्त और गंगा-सिन्धु नदियों तथा वैताव्य पर्वतसे की गई सीमासे सहित है ॥ १६५१६६ ॥ उस देशमें शुभा नामक उतम नगरी जानना चाहिये । यह नगरी वन-वेदियोंसे युक्त, मणिमय तोरणोंसे मण्डित, दिव्य, सुवर्णमय प्रासादोंसे संयुक्त, जिनभवनोंसे विभूषित, मनको अभिराम, उपवन-काननोंसे सहित और वापियों एवं पुष्करिणियोंसे शोभायमान है ॥ १६७१६८॥ उसके पश्चिममें जाकर आदर्शन [ आत्गांजन ] नामक वक्षार पर्वत है। यह पर्वत खूब तपाये गये सुवर्णके समान वर्णवाला, मणियों व रत्नोंसे विभूषित, रम्य, निषध पर्वतके समीपमें चार सौ और सीता नदीके तीरपर पांच सौ योजन ऊंचा, तथा सीताके समीप देशमें एक सौ पच्चीस योजन और निषधके समीपमें सौ योजन अवगाहसे युक्त कहा गया है ॥ १६९१७१॥ वन-वेदियोंसे युक्त, उत्तम तोरणोंमे मण्डित और मनको अभिराम ऐसा वह उत्तम पर्वत पांच सौ योजन प्रमाण विस्तृत है ॥ १७२ ॥ उस पर्वतका आयाम छह और दश अर्थात् सोलह हजार पांच सौ बानबै योजन और दो कला अधिक है ॥ १.३ ॥ उक्त रमणीय पर्वत प्रचुर पुष्करिणियों व वापियोंसे सहित, नाना प्रासादोंसे घिरा हुआ, रम्य, अपने जैसे नामबाले देवसे सहित और जिनभवनसे विभूषित है ॥ १७४ ॥ उसके पश्चिममें जाकर धन.................. व रमणिनो दो ति विक्खादा. १ पब समिधो, श समदो. ३ उशखंडेण.. पता, बसत. ५ प व कदोसीमो. ६ प ब वरतोरण. ७ प व भुवण. ८ उ श रम्मा. ९प व कयंभूसा. .. प.".ब आदेसण. "उश समीवो. १२ उ पंचसया जोयणो तुंगा, श पंचसय जोत्चगा. ३ श मोयणा गादो. १४प-बप्रत्योनोंपलभ्यते तृतीयचरणमेतत्. १५उश मणमिरम्मो. उसयावे व कसा पदे सममिरेया, शसया वे बेकला हवे सममिरेया. १७ पबदस्ससदस्स. १८पर पबरो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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