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________________ विकोषपण्णचिका मतिं viation ksa, from ksaya ( decrease) which ooours several times, indeed, more than any other word indicative of subtraction. The sign for ksa, whether in the Brahmi characters or in Bakhshali characters, differs from the simple cross (+) only in having a little flourish at the lower end of the vertical line. The flourish seems to have been dropped subsequently for convenient simplification"." तिलोय पण्णची में उपयोग में आये हुए प्राकृत शब्द 'रिण' के आधार पर हम भी अपना सुझाव रख सकते हैं। + चिह्न, रिण शब्द के रि अक्षर से ब्राह्मी लिपि के अनुसार (1) किया गया है। इस रिण शब्दको केवल परम्परागत आचार्यों द्वारा प्राप्त कार्य मार्गणाओं में स्थित नौवों की संख्या प्ररूपणा करने तथा उनमें अल्पबहुत्व दिखलाने के लिये प्रतीक निरूपण रूप में लिया गया है। हम यह कह सकते हैं कि रिण शब्द का उपयोग यतिवृषभ कालीन नहीं वरन् उनके पूर्व काल का है। इसके लिये प्रमाण हम, और आगे चलकर बतलावेंगे । रिण शब्द का प्रयोग उस काल का निरूपण करता जब कि + उपयोग में लाया गया होगा । और इस प्रकार रिण शब्द के उपयोग से, उपयोग में आये हुए अन्य प्रतीकों का काल निर्धारण हो सकता है। स्पष्ट है कि रिण शब्द से + धीरे धीरे किस प्रकार उपयोग में आने लगा होगा और यदि ऐसा हुआ है तो प्रतीकत्व का उपयोग बख्शाली काल से बहुत पूर्व का होना चाहिये । यह निर्णय करना भाषाविज्ञान शास्त्रियों के लिये है । उल्लेखनीय है कि धवलाकार वीरसेनाचार्य ने भी ऋण के लिये + प्रतीक का उपयोग किया है । पुनः, चौथे महाधिकार में गाथा १२८७ से लेकर १९९१ तक कोठों में शून्य का उपयोग क्या अता के लिये हुआ है, यह अभी नहीं कहा जा सकता । बख्शाली हस्तलिपि में भी ० का उपयोग खाली स्थान अथवा अग्राह्यता ( omission ) के लिये हुआ है। तथापि, शून्य का यह उपयोग खाली स्थान के लिये ही हुआ होगा, यह सम्भव प्रतीत होता है । भिन्न-भिन्न असंख्यात संख्याओं के निरूपण के लिये भिन्न-भिन्न प्रतीक लिये गये है। जैसे असंख्यात के लिये 8, असंख्यात लोक प्रमाण राशि के लिये ९, तथा 'असंख्यात लोक ऋण एक' के लिये ८ को उपयोग में लाया गया है, चिह्न ति. प. पृ. ६०३ पंक्ति २ में देखिये ) प्रतीक उपयोग में आया है। लिये प्रतीक रूप में हुआ है। मिश्र में तथा = ६० के लिये प्रतीक था । ९, लिखित स्थान में दिखाई देता है" = ५८६४ रिण रा. ४/४/६५६१ ४/६५५१६ ཨ་༤༤༣༥ ५ यह स्थापना कैसे उत्पन्न की गई है, यह समझने में हम अभी समर्थ नहीं हैं। तथापि, बख्शाली हस्तलिपि में भू. प्रतीक का उपयोग मूल के लिये हुआ है। इसी प्रकार यहां तथा और दूसरी जगह भी ० का उपयोग योग के लिये किया गया प्रतीत होता है। 2 का अर्थ हम नहीं समझ सके हैं। इस प्रकार a,,, ९ में यूनानी झलक दिखाई देती है, तथापि, निम्न लिखित अवतरण पढ़ना वांछनीय है । Jain Education International इत्यादि । संख्यात के लिये... ( यह मिश्र में इसका उपयोग १०० की खड़ी लकीर १ का, ग्रीस में खड़ी लकीर १० का निरूपण करती थ १०० का प्रतीक था। आगे मू. अक्षर का उपयोग केवल निम्न 19 - २ मू. 2 . १३ मू. १ B. B. Datta & A, N. singh Part I. PP. 14, 15. २ खंडागम पु. १०, ४, २, ४, ३२, पृ. १५१. ३ ति प भाग २, पंचम अधिकार, पृष्ठ ६०९. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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