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________________ १२ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना “Ssade, a softer sibilant (=90), also called San in early times, was taken over by the Greeks in the place it oooupied after t......... The Phoenician alphabet ended with T; the Greeks first added T, derived from Vau apperently (......), then the letters o,x, Vand, still later, 2.........Now, as & is fully established at the date of the earliest inscriptions at Miletus (about 700 B.C.) and Naueratis (about 660 B.C.), the earlier entension of the alphabet by the letters कxy must have taken place not later then 760 B.C."" इस प्रकार, 6, 2, 3, के उपयोग के आधार पर रिण का उपयोग भी तिलोय-पण्णती की संरचना से पूर्व का प्रतीत होता है। रज्जु के लिये र, पल्य के लिये प, आदि प्रतीक ग्रहण करना स्वाभाविक है। दीन्द्रिय के लिये बीइंदिय शब्द का उपयोग प्राकृत में होता रहा है। सूर्यगुल के लिये और कहीं कहीं आवलि के लिये २ प्रतीक चुना है-इसका कारण, तथा उपयोग में लाये जाने के काल का निर्धारण करना अभी शक्य नहीं है। भिन्नों के लिखने की शैली बख्शाली हस्तलिपि के समान ही है। मिश्र में भी यही शैली प्रचलित थी। जैसे, २४ को nam और उश्र को ९९९०ी लिखा जाता था। बेबीलोन में भी खड़ी और आड़ी खूटियों के द्वारा संख्या निरूपण होता था, जैसे I<.........का अर्थ (६०) +१.. (६०) होता था। जिस तरह द्वि के लिये प्राकृत में बी है, उसी प्रकार यूनानी अक्षर दो का प्रतीक है। अन्य चिह्न प्राप्त नहीं हुए हैं। प्रतीकत्व के उपयोग के सिवाय, विभिन्न स्थानों में सूत्रों का उपयोग, तथा पत्र द्वारा अल्पबहत्व का निरूपण ही विभिन्न समीकारों की उत्पत्ति करता है, जो पठनीय है, तथा जिनसे पर्याप्त मात्रा में खोज की जा सकती है। अल्पबहुत्व का निरूपण ही विश्लेषण अथवा बीजगणित है, जिसके कुछ उदाहरण अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, और जिनके पूर्वापर विरोध का खंडन करने के लिये वीरसेन अथवा यतिवृषभने अपने समय की प्रचलित युक्तियों की झलक दिखा दी है। वही झलक ऐतिहासिक दृष्टिसे कितने महत्व की है, यह स्वयं प्रकट हो जावेगा। मापिकी या ज्यामिति विधियां तिलोय-पण्णत्ती के विवरणसे स्पष्ट है कि जैनाचार्यों ने बो भी खोजें की वे परम्परागत शन को सुलझाने, स्पष्ट करने के लिये ही की है। जम्बूद्वीप आदि द्वीप-समुद्रों के वृतरूप क्षेत्रों के क्षेत्रफल, धनुष, जीवा, बाण पार्श्वभुना तथा उनके अल्पबहुत्वों का प्रमाण निकालने के लिये उन्होंने वृत्त और सरल रेखा पर बहुत कार्य किया। यूनानियों ने भी वृत्त और सरल रेखा पर आधारित अंशदान दिया है। पुनः लोक के चतुरस्र आकार के कारण उन्होंने वेत्रासन के आकार के सांद्रों का छेदविधिसे विभिन्न प्रकार के ज्ञात क्षेत्रों में प्राप्त कर, घनफल निकाला है, जिनमें वातवलयों से वेष्टित आकाशका बनफल निकालना, उनकी पटुता का द्योतक है। क्षेत्रावगाहना के वर्णन के आधार पर उन्होने बेलनाकार, शंक्वाकार, क्षेत्रों के घनफल भी निकाले हैं। ये विधियां भारतीय शैली के आधार पर सूत्रबद्ध निरूपित है। यह सब होते हए, गोल क्षेत्र के धनफल का निरूपण न होना एक आश्चर्यपूर्ण बात प्रतीत होती है, क्योंकि गोलार्द्ध बिम्बों की अवगाहना तथा चंद्रादि की कलाओं के क्षेत्रफल आदि विषयों की चर्चाओं को भी THeath vol. 1. PP. 32-34. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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