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________________ २०६] जंबूदीवपण्णत्ती [११. १९८जयविजयवेजयंतीपडायबढुकुसुमसोहकयमालं । विलसंतणाभिदामं चोक्खं सुचियं पवित्तं च ॥ १९८ जगजगजगंतसोहं अञ्चन्भुदैरुवसारसंठाणं । पुफ्फोवयारपउरं बहुकोदुयमंगलसणाहं ॥ १९९ जंबूणयरयणमयं णिच्चुज्जलरयणचोक्खकदसोहं कि जंपिएण बहणा पुष्णफलं चेव पञ्चक्खं ॥ २०० जं तत्थ देवदेवीण वरसुहं जं च रूवलायणं । को वण्णे मणुस्सो अवि वाससहस्सकोडीहिं ॥ २०१ तत्तो दु असंखेजा जोयणकोडीसदा अदिक्कम्मं । विमलं णाम विमाणं जत्थावासा सपुण्णाणं ॥ २०२ तत्तो दु पुणो गंतुं जोयणकोडीसदा असंखेज्जा। चंदं णाम विमाणं अस्थि सुरुवं मणभिरामं ॥ २०३ तत्तो दु असंखेबा जोयणकोडीसदा अदिक्कम्म'। वग्गूणामविमाणं पमुदिदपक्कीलिदं रम्मं ॥२०४ तत्तो वि असंखेजा जोयणकोडीसदा अदिक्कम्म । वीरंणाम विमाणं पंचमपडलो समुद्दिडो ॥२०५ पत्तेयं पत्तेयं जोयणकोडीसदा असंखेना । सव्वाण विमाणाणं पडलं पडलं तदो होइ ॥ २०६ जयन्ती, विजयन्ती व वैजयन्ती पताकाओं तथा बहुतसे फूलोंकी मालाओंसे शोभायमान; नाभिमें मालासे सुशोभित, चोखा, शुचि एवं पवित्र, अतिशय चमकते हुए सौधोंसे सहित, अत्यन्त अद्भुत श्रेष्ठ रूप व आकृतिसे संयुक्त, प्रचुर पुष्पोंके उपहारसे युक्त, बहुत कौतुक व मंगलोंसे सनाथ, सुवर्ण व रत्नोंसे निर्मित, और नित्य उज्ज्वल चोखे रत्नोंसे शोभायमान है। बहुत कहनेसे क्या ? यह प्रत्यक्ष पुण्यका ही फल है ॥ १९६-२०० ॥ वहां देव-देवियोंको जो उत्तम सुख और रूप-लावण्य प्राप्त है उसका वर्णन कौनसा मनुष्य हजारों करोड़ वर्षों में भी कर सकता है ? ॥२०१ ॥ ऋतु विमानसे असंख्यात सौ करोड़ योजन अतिक्रमण करके विमल नामक विमान है जहां पुण्यात्मा जीवोंका निवास है ॥२०२ ॥ फिर उससे असंख्यात सौ करोड़ योजन जाकर सुन्दर आकृतिसे युक्त मनोहर चन्द्र नामक विमान स्थित है ॥ २०३ ॥ उससे असंख्यात सौ करोड़ योजन जाकर वल्गु नामक विमान है जो प्रमोदप्राप्त देवोंकी क्रीडाका रमणीय स्थल है ॥ २०४ ॥ उससे भी असंख्यात सौ करोड़ योजन जाकर वीर नामक विमान है। यह पाचवां पटल कहा गया है ॥२०५ ॥ इसके आगे प्रत्येक प्रत्येक असंख्यात सौ करोड़ योजनके अन्तरसे सब विमानोंके पटल हैं ॥ २०६ ॥ फिर इससे आगे .................... १ उश विलसंति. २ उश सुचिय. ३ उश अच्चुभुद, ब अवज्ञद. ४ उश पुप्फोवयालपउरं. क ब पुप्फोपचारपउरं. ५ उ पुप्फफलं चेय पञ्चक्खं, श पुष्फफलं चेय यस्सकं. ६ क मुहं. ७ उ देवदेवीन वरसुहं जं च तत्थ ण्णायण्णं, श देवदेवीनवं सुहं जं च तत्थ प्रणायणं. ८ उश वणिज, ब वणिज. ९ उ अदिक्कम, ब आदिकम्म, श अदक्कम. १० उ श अत्थि सुतयं, ब अछि सुरूवं. ११ उ अदिक्किम्म, ब आदिकम्म, श अधिकम्म. १२ उ श पनुदिदपक्कीलिदं नाम, क पमुदिदपक्खिल्लदं रम्मं, ब पुमुदिदपखिल्लदं णाम. १३ ब आदिकम्म, श अधिकाम्म. १४ व धीरं, १५ उब श पंचयपडला समुद्दिहा. १६ ब सम्वाण विमाणाणं पडलं, श वेरुलिय त्ति विमाणं पडलं पडलं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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