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________________ -११. २१७] एक्कारसमो उद्देसो [२०७ तत्तो य पुणो अरुणं गंदण गलिणं च कंचणं रुहिये । चंचारणं च भणियं तहेव पुण रिविसं होई ॥२०७ तत्तो य पुणो गंतुं जोयणकोडीसदा अदिक्कम्मं । वेरुलिय त्ति विमाणं पभंकरं चेव रमणीयं ।। २०८ रुधिरं अंकं फलिहं तवणिज्ज चव उत्तमसिरीयं । मेघ तह वीसदिम मणिकंचणभूसियपदेस ॥ २०९ अभं तह हारिहं पउमं तह लोहियंक वरं च । गंदावत्तविमाणं पभंकर चेव रमणिज्जं ॥ २१० अवरं च पिडणाम तहा गयं होइ मत्तणामं च । एदे तीस विमाणा एगत्तीसं पमं णाम ॥ २११ एदे एक्कत्तीस हवंति पढला सुहम्मकप्पस्स । सेदिविमाणे हि गदा लोगादो जावं लोगंतं ॥ २१२ एकतीसदिम पडलं जंबूणदरयणेअंकवइरमयं । तम्मूले सोहम्मं जत्थ सुरिंदो सयं वसइ ॥ २१३ समचउरंसा दिब्बा जोयणमेगं च समधियं जत्थ । णामेण सा सुधम्मा सोधम्म जीएं' णामेण ॥ २१४ तत्थ दु विखंभमेन्झे हवंति जयराणिमाणि" चत्तारि । कंचगमसोगमंदिरमसारगलं च सोहम्मे ॥ २१५ तो तत्थ लोगपाला चदुसु वि य दिसासु होति चत्तारि । जमवरुणसोममादी एदेसु हवंति णगरे९ ॥२१६ वेमाणिया य एदे जमवरुणकुबेरसोममादीयाँ । पडिइंदा इंदस्स दु उत्तमभोगा महिड्ढीया ॥ २१७ अरुण, नन्दन, नलिन, कांचन, रोहित, चंचत्, अरुण ( मरुत् ), तथा ऋद्धीश विमान कहे गये हैं ॥ २०७ ॥ पुनः उससे सैकड़ों करोड़ योजन जाकर वैडूर्य विमान और रमणीय प्रभंकर ( रुचक ) विमान है । उससे आगे रुधिर ( रुचिर ), अंक, स्फटिक, तपनीय तथा बीसवां उत्तम श्रीसे युक्त और मणि एवं सुवर्णसे भूषित प्रदेशवाला मेघ विमान है ॥ २०८-२०९॥ इसके आगे अभ्र, हारिद्र, पद्म, लोहित, अंक, वज्र, नंदावर्त, रमणीय प्रभंकर, पृष्ठ नामक, गज और मत्त ( मित्र ) नामक, ये तीस विमान तथा इकतीसवां प्रभ नामक; इस प्रकार ये इकतीस पटल सौधर्म कल्पके हैं जो श्रेणिबद्ध विमानोंके साथ लोकसे लोक पर्यन्त स्थित हैं ॥ २१०२१२ ॥ इकतीसवां पटल सुवर्ण, रत्न, अंक व वज्रमय है। उसके मूलमें सौधर्म कल्प है जहां स्वयं सुरेन्द्र रहता है, तथा जहां समचतुष्कोण दिव्य एक योजनसे कुछ अधिक विस्तृत सुधर्मा नामकी सभा है, जिसके नामसे उस कल्पका भी सौधर्म नाम प्रसिद्ध है ॥ २१३२१४ ॥ वहां सौधर्म कल्पमें विष्कम्भके मध्यमें कांचन, अशोक, मंदिर और मसारगल्ल, ये चार नगर हैं ॥ २१५ ॥ वहां चारों दिशाओंमें स्थित इन नगरोंमें यम, वरुण और सोमादि ( सोम और कुबेर ) ये चार लोकपाल रहते हैं ॥ २१६ ॥ उत्तम भोग एवं महर्द्धिसे संयुक्त ये यम, वरुण, कुबेर और सोमादि वैमानिक देव इन्द्रके प्रतीन्द्र होते १ उ श रुपियं. २ उ श चंदारुणं. ३ उ तहेव पुणिदिदिसंपण्णं, क तहेव पुण दिड्दिसं होइ, ब तहेव पुण्णादेटिस होइ, श तहेव रिहिसंपण्णं. ४ श भयंकर. ५ उ श भूसियापदेसं. ६ उ श विदणामं. ७ उ श बाम. ८उश बत्तीसदिमं. ९ क रयर, ब रयद. १० उ क ब शतं मूले. ११ क जीय, (ब सुधण्णो सोधम्म जीव णामेण ), श जीये. १२ उश तिरकंभ. १३ उ श णयरा इमाणि. १४ उश सोहम्म. १५ कववि दिसासु. १६ श एदे जमवरुपकुवेरगरेस. १७श सोमवादीया. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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