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________________ - ८. ८२ ] अटुमा उसो [ १४१ कंचणपायोरजुदा मणिमयवरतोरणेहि रमणीया । जल उण्णखादिजुत्ता वणसंडविराइया दिव्या ॥ ७३ वज्जिदणील मरगयक केयणपउमरायघरणिवा । कालागरुगंधड्ढा जिणभवणविहूमिया रम्मा ॥ ७४ तसो पुग्वदिसाए कणयमया वेदिया हवे णेयो । बेगाउयउग्विद्धा पंचैव धणुस्सया विउला || ७५ वरपठ मराय मरगयणाणाविहरयणजालकिरणोद्दा । वज्जैमयरयणमूला कोदंडसहस्सभवगाहा ॥ ७६ पुत्रेण होइ ततो देवारणं समुद्दतीरम्मि । णाणातरुवरगहणं बहुभवणसमाउलं परमं । ७७ पुण्णायणायपरं सुरत रुस सच्छदेहि संछष्णं । चंपयम सोय कप्पूर बउर्लेमंदारत रुणिव " ॥ ७८ तत्थ दु देवारपणे पासादा होति स्यणपरिणामा । वरवेदिएहिं जुत्ता वरतोरणमंडिया दिग्वा ॥ ७९ पोक्स्मरणियाविषउरा कोडावाला सभाघरा पवरा । उववादभवणरम्मा सोहणसाला विसावा य ॥ ८० लंबंतकुसुममाला जिणभवणविद्रूसिया रम्मा | काल|गह गंधड्ढा बहुकुसुमकयच्चर्णसणाहा ॥ ८१ सुविदिलाविभागे रयणमया विष्कुरंतमणिकिरणा । पासादा णायग्वा देवाणं आदरक्खाणं ॥ ४२ करते हैं || ७२ ॥ यह रमणीय नगरी सुवर्णमय प्राकारसे युक्त, मणिमय उत्तम तोरणोंसे रमणीय, जलपूर्ण खातिका से युक्त, वनखण्डोंसे विराजित, दिव्य; वज्र, इन्द्रनील, मरकत, कर्केतन एवं पद्मराग मणिमय गृहसमूह से युक्त; कालागरुकी गन्धसे व्याप्त और जिनमवनों से विभूषित है । ७३-७४ ॥ उससे पूर्व की ओर स्थित सुवर्णमय वेदिका जानना चाहिये | यह वेदिका दो कोश ऊंची, पांच सौ धनुत्र विस्तृत उत्तम पद्मराग एवं मरकत आदि नाना प्रकारके रत्नजालके किरणसमूइसे संयुक्त, वज्र रत्नमय मूलभागसे सहित, तथा एक हजार धनुष प्रमाण अवगाहसे युक्त है ।। ७५-७६ ।। उसके पूर्व में समुद्रके तीरपर देवारण्य नामका वन है । यह वन उत्तम नाना वृक्षोंसे गहन, बहुत भवनोंसे व्याप्त, श्रेष्ठ, पुन्नाग व नाग वृक्षों की प्रचुरता से युक्त, कल्पवृक्ष व सप्तच्छद वृक्षोंसे व्याप्त; तथा चम्पक, अशोक, कर्पूर, बकुल, एवं मन्दार वृक्षोंक समूहसे संयुक्त है ॥ ७७-७८ ॥ उस देवारण्यमें रत्नोंके परिणाम रूप जो प्रासाद हैं वे उत्तम वेदियोंसे युक्त, श्रेष्ठ तोरणोंसे मण्डित, दिव्य, पुष्करिणियों ब वापियोंकी प्रचुरता से संयुक्त, श्रेष्ठ, क्रीडाशालाओं और सभागृहोंसे सहित, उपपादभवनों से रमणीय, विशाल, शोभनशालाओं ( मैथुनशालाओं ? ) से परिपूर्ण, लटकती हुई कुसुममालाओं से युक्त, जिनमबनोंसे विभूषित, रम्य, कालागरुकी गन्धसे व्याप्त और बहुत कुसमोंसे की गई सजावट सहित हैं ।। ७९-८१ ॥ इनमें प्रकाशमान मणिकिरणोंसे सहित आत्मरक्ष देवों के रत्नमय प्रासाद चारों ही दिशाओं में स्थित जानना चाहिये ॥ ८२ ॥ दक्षिण दिशामें तीन १ उश पयार. २ ज श णया, प ब णेय. ३ उ श म ज ४ प ब दिउल ५ उ मायंदतरुनिव श मायंदर नित्रयं. ६ प ब देवरण्णो. ७ उश पंडरा ८ उश कयव्वण्ण ९ उश दिसामिभागे, प ब दिसासु मागे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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