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________________ १८५] जंबूदीवपण्णत्ती [११. १० मंकमुहसंठिदाई भतो वंसाणि धादगीसंडे । सत्तिमुहसंठिदाई बाहिरसगडद्धियांचाहा ॥१. लक्खा य भट्ठवीसा छादालसहस्तमेव पण्णं च । धादगिसंडे मज्झे परिरयमेद वियाणाहि ॥" इगिहालसयसहस्सा दसयसहस्सा सदा य व होति । एगट्ठी' किंचूणा बाहिरदो धादगीस। १२ भट्टसदा बादाला अत्तरिमेगसयसहस्सं च । वसधेरसु य रुद्धं जं खेत्तं धादगीसरे ॥१३ सधरविरहिद खलु जं खेसं हवदि धादगीसरे । तस्स दु छेदा णियमा ये चेव सदाणि बाराणि ॥१४ छउच्चेव सहस्साई छच्च सया चोदसुत्तरा होति । भन्भंतरविक्खंभो अणत्तीसं च भागसदं ॥१५ बारस चेव सहस्सा एयासीदा सदा य पंच हवे । मज्झम्हि दु विक्खंभो भागा यति छत्तीसा ।। भट्रारस य सहस्सा सिगिदालीसा सया य पंच भवे । बाहिरदो विक्खंभो पंचावण्णं च भागसयं ॥१. धादगिपुक्खरमेरूचतुरासीदिं च जोयणसहस्सा । उच्छेधण दु एदे सहस्समोगाट धरणितले ॥१८ जत्थिच्छसि विक्खभ चुल्लयमेरुम्हि उवदित्ताण" । दसभजिदे जं लटुं सहस्ससहिद वियाणाहि ॥ १९ धातकीखण्ड द्वीपके क्षेत्र अन्तमें अंकमुखाकार और बाह्यमें शक्तिमुखाकारसे स्थित हैं। इनकी भुजा गाडीकी अधिकाके समान है ॥ १० ॥ धातकीखण्डके मध्यमें परिधिका प्रमाण अट्ठाईस लाख छयालीस हजार पचास ( २८४६०५०) योजन जानना चाहिये ॥ ११॥ धातकीखण्डकी बाह्य परिधि इकतालीस लाख दश हजार नौ सौ इकसठ (१११०९६१) योजनसे कुछ कम है ॥१२॥ धातकीखण्डमें एक लाख अठत्तर हजार आठ सौ ब्यालीस [ योजन और दो कला (१७८८४२२)] प्रमाण क्षेत्र पर्वतोंसे रुद्ध है ॥ १३ ॥ धातकीखण्ड द्वीपमें जो पर्वत रहित क्षेत्र है उसके नियमसे दो सौ बारह खण्ड हैं {(१+४+१६+६४+१६+४+१) ४२२१२} ॥१४॥ छह हजार छह सौ चौदह योजन और दो सौ बारह भागों से एक सौ उनतीस भाग (६६१४३३३) प्रमाण [ भरतक्षेत्रका ] अभ्यन्तर विष्कम्भ है ॥ १५॥ बारह हजार पांच सौ इक्यासी योजन और छत्तीस भाग ( १२५८१३३६) प्रमाण [ मरतक्षेत्रका ) मध्यविस्तार है ॥१६॥ अठारह हजार पांच सौ सैंतालीस योजन और पचवन भाग ( १८५४७३५५) प्रमाण [भरतक्षेत्रका ] बाह्य विष्कम्भ है ॥ १७ ॥ धातकीखण्ड और पुष्कर द्वीप सम्बन्धी मेरु चौरासी हजार योजन ऊंचे और पृथिवीतलमें एक हजार योजन प्रमाण अवगाहसे सहित हैं ॥ १८ ॥ ऊपरसे नीचेकी ओर आते हुए जितने योजन नीचे जाकर इन क्षुद्र मेरुओका विस्तार जानना अमीष्ट हो उनमें दशका भाग देनेपर जो प्राप्त हो, एक हजार योजनोंसे सहित उतना वहांपर विस्तार जानना चाहिये ॥ १९ ॥ उश सगदुद्धिया, क सगडद्धि ..., ब सगदुब्बिया. २ क वादाल. ३ उश परिरयमेवं. ४ उश इतिदाल, ब इदाल. ५ उश एगहिब पगहि. ६ उबश संडो. ७ब वंसधरसुवरुधं. ८शप्रतौ नोपलभ्यतेऽयं पूर्वार्धमागोऽस्या गाथायाः। ९उक दुग्छेदो, ब दुछेदो,श तुच्छेदो...उश सदा वा य पंच भवे. ११उश मिगिदालीसा सया व पंच. १२ काप्रती 'मेरू' इत्यत आरम्य अग्रिमगाथायाः 'मेशाम्ह' पदपर्यन्तः पाठदुटितोऽस्त. ३उरादसहस्स,बहु येदोसहस्स, शदु रागदसहस्स. ४ उ उयदित्ताण, क ओवदिताणं, श उपदिताणं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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